बिल्लेसुर ने अँधेरे में टटोलकर सन्दूक़ में रक्खी कुण्डली निकाली और सासजी को देते हुए कहा, "देखियेगा, कहीं खो न जाय।"
"नहीं, बच्चा, खो क्या जायगी?" कहकर सासजी ने आग्रह से कुण्डली ली। बिल्लेसुर ने टेंट से एक रुपया निकाला; सासजी के हाथ में रखकर पैर छुए; कहा, "यह तुम्हें कुछ दे नहीं रहा हूँ।"
"क्या मैं कुछ कहती हूँ, बच्चा?" असन्तोष को दबाकर मन्नी की सास घर के बाहर निकलीं, रास्ते पर पाकर एक साँस छोड़ी और अपने गाँव का रास्ता पकड़ा। अब तक सबेरा हो चुका था।
(१६)
बिल्लेसुर ने इधर बड़ा काम किया। शकरकन्दवाले खेत में मटर बो दिये। उधरवाले में चने वो चुके थे, जो अब तक बढ़ आये थे।
काम करते हुए रह-रहकर बिल्लेसुर को सास की याद आती रही; विवाह की बेल जैसे कलियाँ लेने लगी; काम करते-करते दुचित्ते होने लगे; साँस रुक-रुक जाने लगी, रोएँ खड़े होने लगे।
आख़िर चलने का दिन आया। बिल्लेसुर दूध दुहकर, एक हण्डी में मुस्का बाँधकर, दूध लेकर चलने के लिये तैयार हुए। रात के काटे पत्ते रक्खे थे, बकरियों के आगे डाल दिये।
फिर पानी भरकर घर में स्नान किया। थोड़ी देर पूजा की। रोज़ पूजा करते रहे हों, यह बात नहीं। पूजा करते समय दरपन कई बार देखा, आँखें और भौहें चढ़ाकर-उतारकर, गाल फुलाकर-पिचकाकर, होंठ फैलाकर-चढ़ाकर। चन्दन लगाकर एक दफ़ा फिर मुँह देखा। आँखें निकालकर देर तक देखते रहे कि चेचक के दाग़ कितने साफ़ दिखते हैं। फिर कुछ देर तक अशुद्ध गायत्री का जप