जानकार बिल्लेसुर पहली वर्षा की मटैली सुगन्ध से मस्त होते हुए मौलिक किसानी करने की सोचते अपनी इसी धुन में बकरियों को लिये चले जा रहे थे। उन बँटाई उठाये खेतों में एक खेत ख़ूद-काश्त के लिए ले लिया था। बरसातवाली किसानी में मिहनत ज़्यादा नहीं पड़ती। एक बाह दो बाह करके बीज डाल दिया जाता है। वर्षा के पानी से खेती फूलती-फलती है। बैल नहीं हैं, अगमन जोतने-बोने के लिए कोई माँगे न देगा। बिल्लेसुर ने निश्चय किया कि छः सात दिन में अपने काम भर को ज़मीन वे फावड़े से गोड़ डालेंगे। गाँव के लोग और सब खेती करते है, शकरकन्द नहीं लगाते। इसमें काफ़ी फ़ायदा होगा। फिर अगहन में उसी खेत में मटर वो देंगे। जब शकरकन्द बैठेंगी, रात को ताकना होगा, तब किसा को कुछ देकर रात को तका लेंगे। एक अच्छी रक़म हाथ लग जायगी।
निश्चय के बाद जब बिल्लेसुर इस दुनिया में आये तब देखा, वे बहुत दूर बढ़ आये हैं। आग्रह और उतावली से जाँच की निगाह बकरियाँ पर डाली––गंगा, जमुना, सरजू, पारवती हैं, सेखाइन, जमीला, गुलबिया, सितबिया है; रमुआ, स्यमुआ, भगवतिया, परभुआ है, टुरुई है, और दिनवा? बिल्लेसुर चौकन्ने होकर देखने लगे, पीछे दूर तक निगाह दौड़ाई दीनानाथ न दिखे। कलेजा धक्-स हुआ। दीनानाथ सबसे तगड़े थे, वहा पिछड़ गये, या कहाँ गये। बुलाने लगे। "उर् र् र्, उर् र् र् दिनवा! अ ले––अ ले––उर् र् र् र्! आव-आव, दिनवा! उर् र् र्, उर् र् र्; बेटा दीनानाथ, उर् र् र्!" "टुरुई मिमियाने लगी। दीनानाथ की कोई आहट न मिला। "टुरुई, कहाँ है दिनवा?" टुरुई मिमियाती हुई बिल्लेसुर के पास आ गई।