पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/१५

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सुना था, बङ्गाल का पैसा टिकता है, बम्बई का नहीं, इसलिये बङ्गाल की तरफ़ देखा। पास के गाँवों के कुछ लोग बर्दवान के महाराज के यहाँ थे सिपाही, अर्दली, जमादार। बिल्लेसुर ने साँस रोककर निश्चय किया, बर्दवान चलेंगे। लेकिन ख़र्च न था। पर प्रगतिशील को कौन रोकता है? यद्यपि उस समय बोल्शेविज़्म का कुछ ही लोगों ने नाम सुना था, बिल्लेसुर को आज भी नहीं मालूम, फिर भी आइंडिया अपने आप बिल्लेसुर के मस्तिष्क में आ गई। वे उसी फटे हाल कानपुर गये। बिना टिकट कटाये कलकत्तेवाली गाड़ी पर बैठ गये। इलाहाबाद पहुँचते-पहुँचते चेकर ने कान पकड़कर गाड़ी से उतार दिया। बिल्लेसुर हिन्दुस्तान के जलवायु के अनुसार सविनय क़ानून-भङ्ग कर रहे थे, कुछ बोले नहीं, चुपचाप उतर आये; लेकिन सिद्धान्त नहीं छोड़ा। प्लैटफ़ार्म पर चलते फिरते समझते-बूझते रहे। जब पूरब जाने वाली दूसरी गाड़ी आई, बैठ गये। मोगलसराय तक फिर उतारे गये; लेकिन, दो-तीन दिन में, चढ़ते-उतरते, बर्दवान पहुँच गये।

पं॰ सत्तीदीन सुकुल, महाराज, बर्दवान के, यहाँ जमादार थे। यद्यपि बङ्गालियों को 'सत्तीदीन' शब्द के उच्चारण में अड़चन थी, वे 'सत्यदीन' या 'सतीदीन' कहते थे, फिर भी 'सत्तीदीन' की उन्नति में वे कोई बाधा नहीं पहुँचा सके। अपनी अपार मूर्खता के कारण सत्तीदीन महाराज के ख़ज़ाञ्ची हो गये, आधे; आधे इसलिये कि ताली सत्तीदीन के पास रहती थी, खाता एक दूसरे बाबू लिखते थे। सत्तीदीन इसे अपने एकान्त विश्वासी होने का कारण समझते थे। दूसरे हिन्दोस्तानियों पर भी इस मर्यादा का प्रभाव पड़ा। बिल्लेसुर समझ-बूझकर इनकी शरण में गये। सत्तीदीन सस्त्रीक