पृष्ठ:बिल्लेसुर बकरिहा.djvu/१०

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लड़के हुए—मन्नी, ललई, बिल्लेसुर, दुलारे। नाम उन्होंने स्वयं रक्खे, पर ये शुद्ध नाम हैं। उनके पुकारने के नाम गुणानुसार और और हैं। मन्नी पैदा होकर साल भर के हुए, पिता ने बच्चे को गर्दन उठाये बैठा झपकता देखा तो 'गपुआ' कहकर पुकारना शुरू किया, आदर में 'गप्पू'। दूसरे लड़के ललई की गोराई रोयों में निखर आई थी, आँखें भी कञ्जलोचन, स्वभाव में बदले-बदले, पिता ने नाम रक्खा 'भर्रा' आदर में 'भूरू'। बिल्लेसुर के नाम में ही गुण था; पिता 'बिलुआ' आदर में 'बिल्लू' कहने लगे। दुलारे अपना ईश्वर के यहाँ से ख़तना कराकर आये थे, पिता को नामकरण में आसानी हुई, 'कटुआ' कहकर पुकारने लगे, आदर में 'कट्टू'।

अभाग्यवश पुत्रों का विकास देखने से पहले मुक्ताप्रसाद संसारबन्धन से मुक्त हो गये। उनकी पत्नी देख-रेख करती रहीं। पर वे भी, पीसकर, चौका-टहल कर, कंडे पाथकर, ढोर छोड़कर, रोटी पकाकर, छोटे से बाग़ के आम-महुए बीनकर, लड़कों को किसानी के काम में लगाकर ईश्वर के यहाँ चली गईं। उनके न रहने पर चारों भाइयों की एक राय नहीं रही। विवाद काम में विघ्न पैदा करता है। फलतः चार भाई की दो टोलियाँ हुईं। मन्नी और बिल्लेसुर एक तरफ़ हुए, ललई और दुलारे एक तरफ़, जैसे सनातनधर्मी और आर्यसमाजी। कुछ दिन इसी तरह चला। फिर इनमें भी शाखें फूटीं जैसे वैष्णव और शाक्त, वैदिक और वितण्डावादी। फिर सबकी अपनी डफली और अपना राग रहा।

सनातनधर्मानुसार मन्नी दुखी हुए कि तरी के सुकुल होने के कारण कोई लड़की नहीं ब्याह रहा। पर विवाह आवश्यक है, इस लोक के लिये भी और परलोक के लिये भी। माता-पिता गुज़र गये