३०८ बिरहबारीशमाधवानलकामकंदलाचरित्रभाषा। ३१ सो पातीलिखीबनाय सो सुमुखी के हाथदिय । प्यारीपै चलजाय बिरह विथा कहियो सबै ॥ चौतुममोहिखबरमित्रकीदीन्हीं। बूड़तविरहवाँहगहिलीन्हीं।। अब मैं नजर करौं कातेरी। हाजिर चितवत गरदन मेरी ॥ जलकी बाढिपियूष पिवायो । मृतकजीव फिरघट में आयो॥ नइया आय बिरह निधिकेरी । बूड़त राखलीनयह बेरी। (सुमुखी बचन) चौ० चलद्विजवहांतालतट देखी । हाँउपायइककरत बिशेखी॥ हरहर शब्द ताल तट होई । तब तुम जानहु टेरत कोई॥ लीलावती सों भेंट कराऊं । तेरे मनकी तपन बुझाऊं ॥ चलि सुमखी निज डेरे आई। लीलावति को कथा सुनाई । सो चिट्ठी माधव केर लीलावति निजकर लई। हियेलाय सतबेर कछु उदास हर्षतकछुक ॥ चौ० सुमुखीकहैसुनोकिनप्यारी।चलबिशेषचलियेफुलवारी॥ चलके बाल बाग में आई । ताकी सुधि काहू नहिं पाई। छंदत्रोटक । द्विजको लखिती रतडाग तहां । मनमोदभयो बनितानमहां ॥ सुमुखीहरनामतहांसुमिखो। तबमाधवनेकरखी. णधस्यो॥ चलबागमें आश्रमभागगयो। उरलाहि दुहूनदुहूनल- यो। सुखके आंशू उमड़े नरहें । मुखते भर लाज न बातकहैं। थल एक दुवोतहां बैठगये । सुमुखी तियके करपानदये ॥ भय लाज न बालन बोलसकै॥चितकी चित बाहर हो झलकै। सो० तिय केहिय की पाय माधो सों सुमुखी कही। भई यामनी आय बसिये चल भामिनिभवन । योसुन भयो हुलास माधोनल चाह्यो चलन। कहूं धरो नहिंत्रास व्यभिचारिनकी रीति यह ॥ दो. ज्वारी ब्यभिचारी मदी मांस अहारी कोय । इनके शोच सँकोच नहिं दयाकसकनहिहोय ॥ सो कायाको बुझेह कोऊ. व्यभिचारी नरन । .
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