२८ विरहवारीशमाधवानलकामकंदलावरित्रभाषा। सुमुखी ।। कटिकेहरिनेह भरीरवनी । गजमत्तमतंग यथागवनी ।। लखिपीन कुचामन मोदल हैं। कुचसंघसकीनन सत्तु कहें ।। अतिजीरन जोरभयो पचि कैं। नकढ़यो मनमत्ततहां खचिकै ।। लटछोर जंजीरनडारदियो । छुवै पुन बेशक जोर कियो । नवयोवन सोक्न माँझरहै। अबभूल पस्यो दुख कौनक है ॥ चिं त चाहत पै मिलते न बने । खल अंतर कंदपकूरहने ॥ विसरयो घर यो सुख स्वादसवै। इमि माधव शंकर सों विनवे ।। दो० ० वागतड़ाग महेशमठि लख्यो मजाके काज। पैनहोययारी बिना बिरही को सुख साज ॥ चौ सुन सुभान यह इश्क मजाजी । जो दृढ़ एक हक्कदि- लराजी। पढ़े पढ़ावे समझे कोई। मिलै हक खामिद कोसाई ।। उनमुन उनमुन उनमुनमेला । इश्क हकीकी झेलमझेला ॥ ल खिके ध्यान धनीको आवै । पूरण प्रेम निशानी पावै ॥ बेद कि ताब यहूमतंबूझै । तीन लोक ऊपरतिहिं सूझै ॥ नाहक कवित- रचै जोकोई । हरगिज गलत पढ़े जो कोई॥ इतिश्रीविरहवारीशमाधवानलकामकंदलाचरित्रभाषाविरही सुभान सम्बादेवालखंडेपंचमस्तरङ्गः ५ ॥ (अथ अगिलावखंड) (छठवांतरंग) सो. जब मिलिबो नहिं होत हितलगाय के दृगन में। तब आशिक की जोत जारतनेह बसीठको ।। पिय प्यारी अरुपीय दूती को देखत जिये। ज्यों रोगी को जीय रहत समानो वैद्यमें ॥ दो लीलावति छकि तकिकहै सुमुखी सो जियदाप । मेसे माधव मीतको तेरेहाथ मिलाप ॥ सो० आनमिलावे मोहिं जो तू माधव मीतको।
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