८७ विरहवारीशमाधवानलकामकंदलाचरित्रभाषा । वरवट विरहपयोधिवहावै । को जग हितू तीरमें ल्यावै ॥ दो चैत अष्टमी कृष्णपख दिज पहुंचो उज्जन । शहर रम्य नृपधर्म लखि भयो आय चित चैन । सन विक्रम शकबंधी जहां सातदीप पति धीर। निश्चय मान्यो माधवा जान्यो लाग्योतीर ।। डरतएक अपराधको हरतभूमि को भार। हास्यो एक अदृष्टिसों जीत्यो सब संसार ॥ चंदद्रुमिला। लखिमाधवाउज्जैन । तित नृपति विक्रमसैन । शतकोश सबपुरवास । तिहि मध्यनृपति अवास ॥ सुरवधू ऐसी बाम । नर लखत लज्जित काम ॥ लखि महलसबके येह। जनु आय सुरपति गेह ॥ धन धर्म पूरण लोइ । दुखदोष लहत नको इ॥ हरिभजन दान पुरान । रतरंगही गुजरान ॥ छंददोधक । बागतड़ागन की अधिकाई । हेम हवेलिन सुन्दर ताई ॥ देखत रम्यपुरी चहुंघा अति । भूलिगई द्विजको विरहागति॥ दंडक । आठ ह दिशान दरवाजे अष्टराजें खाई कोटऑकँगूरन की कोसरखतहै । महल २ प्रति बागओ तड़ाग चौक चौविस बजारदेखे लंकहरषत है ॥ राजतसुरशेश नरेशकविबोधा तहां विक्रमसमर्थ जाहि मीचहरषतहै । जाहीनोर जाही खोर चलिये उज्जैन बीचताही ओर सरस बहारवरषतहै । दो चूरामणि पंडित तहां खटदरसनकोदास । क्षुधित भयो दिज माधवा गयो तिन्हीं के पास ॥ कुंडलिया। व्यापति जासु शरीरमें भूखभूतिनी आय। रूप शीलबल बुद्धिहित ताक्षणसबै नशाय ॥ ताक्षणसबै नशाय ज्ञानगुण गौरवहरहीं। पुनिकंदर्प बिनाशपानबीरा अतिकरहीं। सुत सोदर पितुमाय नारिसों नेहुउथापति । जब जाके तनमाहिं भूखभू तिनि होच्यापति ॥ एलाछंद । सुनि माधौके बैन विषादर अति कीन्हों । नम
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