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हम आये तो हैं, पर मुंह छिपाये हुये! क्यों शर्म के मारे। हम झूँठे, झूँठे, महाझूँठे। पर पेशादारी की झूँठ माफ़! दर्जी, सुनार, लोहार, प्रेमवाले, पर इनकी झूठ सच से बढ़कर है। हमने मुंह जरूर छिपाया पर ज़रा मुंह खोल कर तो देखिये। अब की हम वकवाद न करके एक उत्तम उपन्यास आपके लिए लाये है कहिए देर क्यों? हम बहुत छोटे हैं, वर्षा बूंदों के भय से घर में बैठे रहे अब शरद आते ही हमारा प्रकाश हो गया। हमने सोचा, बार बार किसी के घर जाना अच्छा नहीं एक बार ही जो हो, फैसला कर देंगे। अब हम आपके आगे हैं जो चाहे सो हमारा कर लीजिये। खैर, यह १ वर्ष तो जैसे तैसे काटकर पूरा किया, आप से अनृण हुये। आगे "गढ़ भाव्यं तद् भविष्यति"।
आपका चिरवाधि
चिर अपराधी
भारतेन्दु