यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
बिखरे मोती ]
 


निर्मला ने सतेज और दृढ़ स्वर में कहा-“बस अम्मा जी अब मैं ज्यादः न सुन सकूँगी। मैं विट्टन सरीखी होऊँ या उससे भी बुरी; किन्तु इस समय वह निराश्रिता है, कष्ट में है, मनुष्यता के नाते मैं उसे आश्रय देना अपना धर्म समझती हूँ और दूंगी।”

अब रमाकान्त जी को बहुत क्रोध आगया था, वे कमरे से निकल कर आंगन में आगये और आग्नेय नेत्रों से निर्मला की ओर देखते हुए बोले-क्या कहा ? तुम विट्टन को इस घर में आश्रय दोगी ?

निर्मला भी दृढ़ता से बोली—जी हाँ, जितना इस घर में आपका अधिकार है, उतना ही मेरा भी है। यदि आप अपने किसी चरित्रहीन पुरुष मित्र को आदर और सम्मान के साथ ठहरा सकते हैं; तो मैं भी किसी असहाय अबला को कम से कम, आश्रय तो दे ही सकती हूँ ।

रमाकान्त निर्मला के और भी नजदीक जाकर कठोर स्वर में बोले-मेरी इच्छा के विरुद्ध तुम यहाँ उसे आश्रय दोगी।

निर्मला ने भी उसी स्वर में उत्तर दिया—जी हाँ, मेरी

८१