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[मंझली रानी

फिर ससुराल पहुँची । पहिली बार तो मेरे साथ माँ के घर की खवासन थी; इस बार, उस हारमोनियम और थोड़ी-सी पुस्तकों को छोड़कर, कोई न था। मेरा जी एक कमरे में चुपचाप बैठे-बैठे बड़ा घबराया करता। घर में कोई ऐसा न था जिससे घंटे दो घंटे बातचीत करके जा बहलाती । केवल छोटा राजा, मेरे देवर की बातें मुझे अच्छी लगती थीं; किन्तु वेभी मेरे पास कभी-कभी, और अधिकतर बड़ी रानी की नजर बचाकर ही आते थे। मैं सारे दिन पुस्तकें पढ़ा करती; पर पुस्तके थी ही कितनी ? आठ - दस दिन में सब पढ़ डाली । यहाँ तक कि एक-एक पुस्तक दो -दो , तीन-तीन बार पढी गई। छोटे राजा कभी-कभी मुझे अखबार भी ला दिया करते थे; किन्तु सबकी आँख बचाकर।


घर में सब काम के लिये नौकर-चाकर और दास- दासियाँ थीं । मुझे घर में कोई काम न करना पड़ता था। मेरी सेवा में भी दो दासियाँ सदा बनी रहती थी; पर मुझे तो ऐसी मालूम होता था कि मैं उनके बीच में कैद हूँ । क्योंकि मेरी राई-रत्ती भी बड़ी रानी के पास लगा दी जाती थी । उन दासियों में से यदि मैं किसी को किसी काम से कहीं भेजना चाहती, तो वे मेरे कहने मात्र से ही

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