तले रौंद डाला गया। सब के हृदय में सरकार की सत्ता
का आतंक छा गया।
प्रकट रूप से विजय पुलिस की ही हुई। उनके सामने सभी लोग भागते हुए नज़र आए। और यदि किसी ने अपनी जगह पर खड़े रहने का साहस दिखलाया तो वह लाठियों की मार से धराशायी कर दिया गया । परन्तु इस विजय के होते हुए भी उनके चेहरों पर विजय का उल्लास नहीं था, प्रत्युत ग्लानि ही छाई थी। उनकी चाल में आनन्द का हल्कापन न था, वरन ऐसा मालूम होता था कि-जैसे पैर मन-मन भर के हो रहे हों। हृदय उछल नहीं रहा था, वरन एक प्रकार से दवा-सा जा रहा था।
पुलिस लाइन में पहुंँच कर सिपाही लाठीचार्ज की चर्चा करने लगे। सभी को लाठीचार्ज करने, निहत्थे, निरपराध व्यक्तियों पर हाथ चलाने का अफ़सोस हो रहा था। सिपाही राम खिलावन ने अपनी कोठरी में जाकर अन्दर से दरवाजा लगा लिया और लाठी चूल्हे में जला दी। उसकी लाठी के वार से एक सुकमार बालक की खोपड़ी फट गई थी। उसने मन में कहा, विचारे निहत्थे और निरपराधों को कुत्तों की तरह लाठी से मारना ! राम,