हजार बिच्छुओं के दंशन की तरह पीड़ा पहुँचा रहा था।
पति की आंतरिक वेदना सोना से छिपी न थी । वह ज़रा
खिसक कर उनके पास बैठ गई। धीरे से उसने अपना
सिर विश्वमोहन के पैरों पर थर दिया, बोली-
“इस बार मुझे माफ़ करो; अब तुम जो कुछ कहोगे मैं वही करूँगी; मुझ से नाराज़ न होओ ।”
विश्वमोहन के पैरों पर जैसे किसी ने जलती हुई आग धर दी हो; जल्दी से उन्होंने अपने पैर समेट लिए और तिरस्कार के स्वर से चोले—यह बात आज क्या तुम पहिली ही बार कह रही हो? यह मौखिक प्रतिज्ञा है हार्दिक नहीं । मैं सब जानता हूँ। तुम्हारे कारण तो मैं शहर में सिर उठाने लायक नहीं रहा । जिधर जाओ । उधर ही लोग तुम्हारी चर्चा करते हुए देख पड़ते हैं। मेरे तुम्हारे मुँह पर कोई कुछ नहीं कहता तो क्या हुआ ? बाद में तो कानाफूसी करते हैं। तुम्हारे ऊपर तो जैसे इसका कुछ असर ही नहीं पड़ता । जो जी में आता है, करती हो । भला, वह शोहदा तुम्हारे पास बटन टँकवाने क्यों आया ? क्या तुम इन्कार न कर सकती थी ? तुम यदि शह न दो तो कैसे कोई तुम्हारे पास आवे।”