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बिखरे मोती ]
 

इधर तिवारी जी की वहिन जानको, जिसका विवाह हुआ तो गाँव में ही था, किन्तु कुछ दिन से शहर में जाकर रहने लगी थी,जब कभी शहर से चौढ़े किनार की सफ़ेद सारी, आधी वाँह का लेस लगा हुआ जाकेट, टिकली की जगह माथे पर लाल ईंगुर की विन्दी और पैरों में काले-काले स्लीपर पहिन के आती, तो सारे गाँच की स्त्रियाँ-उसे देखने के लिए दौड़ आतीं । गाँव के तरुण- जीवन में उसका आदर था और बूढ़ों की आँखों में यह खटकती थी; किन्तु फिर भी वह सच के लिए एक नई चीज थी; जानकी के पति नारायण ने भी मिल में नौकरी कर ली थी। उसे २०] माहवार मिलते थे । वह अब देहाती न था; सोलह आने, शहर का धायू बन गया था ! धोती की गह ढीला पाजामा, कुरते की जगह कमीज़, वास्कट, और कोट पहिनता; पेगड़ी की जगह काली टोपी और पैरों में पम्प शू.पहिनता था । जो कभी गाँव में जाती कान में इत्र को फाया, जरूर रहता; कभी हिना कभी, खरी, की मस्ते , खुशबू से बेचारे देहाती हैरान हो जाते । इन्हें अपने जीवन से शहर का जीवन बड़ी हो. सुखमय और शान्तिदायक, भालूम होता।

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