कम आते । अधिकतर चाहर बैठक में ही रहा करते ।
घर में आते ही वहाँ को एक-एक वस्तु उन्हें मनोरमा को
स्मृति दिलाती । उनका हृदय विचलित हो जाता है जिस
कमरे में मनोरमी रहा करती थी, उसमें सदा ताला पड़ा
रहता । उस कमरे में वे उस दिन से कभी न गये थे जिस
दिन से मनोरमा वहाँ से निकली थी । जीवन में उन्हें
वैराग्य-सा हो गया था। आने-जाने वालों को वे संसार
की असारता और शरीर की नश्वरता पर लेकचर दिया
करते । कचहरी जाते, वहाँ भी जी न लगता । जिन
लोगों से पचास रुपया फ़ीस लेनी होती उनका काम पञ्चीस
में ही कर देते ! ग़रीबों के मुकद्दमों में वे विना फ़ीस के ही
खड़े हो जाते । सोचते, रुपये के पीछे हाय-हाय करके
करना ही क्या हैं ? किसी तरह जीवन को ढकेल ले जाना
है। तात्पर्य यह कि जीवन में उन्हें कोई रुचि ही न
रह गई थी।
दूसरे विवाह की बात आते ही, उनकी गंभीर मुद्रा
को देखकर किसी को अधिक कहने-सुनने का साहस है।
न होता । अतएव सभी यह समझ चुके थे कि राधेश्याम
जी अब दूसरा विवाह न करेंगे । उनकी माता में भी
उनमे अनेक बार दूसरे विवाह के लिए कहा; किन्तु वे