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बिखरे मोती ]
 


थे। उन्हें पत्नी की देख-भाल करने की फ़़ुर्सत ही कहाँ थी?

पं० राधेश्याम जी एडवोकेट, अपनी मां और कई नौकरों के रहते हुए भी पत्नी को छोड़कर कहीं न जाते थे। दस दिन के बाद कुन्तला की मां पूर्ण स्वस्थ होकर बच्ची समेत अपने घर चली गई और उसी दिन राधेश्याम जी की स्त्री का देहान्त हो गया। अपने नवजात शिशु को लेकर वे भी घर आए। किन्तु पत्नी-विहीन घर उन्हें जंगल से भी अधिक सूना मालूम हो रहा था ।

[ २ ]

पत्नी के देहान्त के बाद राधेश्याम जी ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वे दूसरा विवाह न करेंगे; मनोरमा पर उनका अत्यन्त अधिक प्रेम था। वह अपना चिन्ह स्वरूप जो एक छोटा सा बच्चा छोड़ गई थी, वही राधेश्याम जी का जीवनाघार था। वे कहते थे कि इसी को देखकर और मनोरमा को मूर्ति की पूजा करते हुए ही अपने जीवन के शेप दिन बिता देंगे । जिस हृदय-मन्दिर में वे एक बार मनोरमा की पवित्र मूर्ति की स्थापना कर चुके थे, वहाँ पर किसी दूसरी प्रतिमा को स्थापित नहीं कर सकते थे। घर से उन्हें विरक्ति-सी हो गई थी। भीतर वे

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