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[ एकादशी
 

छपरी थी और वीच में एक कोठरी। यही कोठरी रहमान के सोने, उठने-बैठने की थी और यही रसोई-वर भी थी । रह- मान बीड़ी बनाया करता था।गीले दिनों में यही कोठरी बीड़ी बनाने का कारखाना भी बन जाती थी। क्योंकि छपरी में वौछार के मारे बैठना मुश्किल हो जाया करता था । कोठरी में दूसरी तरफ एक दरवाज्ञा यौर था जिससे दिख रहा था कि पीछे एक छोटी सी छपरी और है जिसके कोने में टट्टी थी और इट्टी से कुछ-कुछ दुर्गन्धि भी आरही थी। रहमान पहिले भीतर गया, डाक्टर साहब दरवाज़े के बाहर ही खड़े रहे। बाद में वे भी रहमान के बुलाने पर अंदर गये। इनके अंदर जाते ही एक मुर्गी जैसे नवागंतुक के भय से कुड़-कुड़ाती हुई, पंख फट-फटती हुई, डाक्टर साहव के पैरों के पास से बाहर निकल गई। डाक्टर साहव को बैठने के लिए रहमान ने एक स्टूल रख दिया। उनकी खो खाट पर लेटी थी।

वहाँ की गंदगी और कुंद हवा देख कर डाक्टर साहब घबरा गये । धीमार की नब्ज़ देखकर उन्होंने उसके फेफड़ों को देखा, परन्तु सिवा कमजोरी के और कोई बीमारी उन्हें न देख पड़ी।

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