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अतिथियों के प्रति सेवाग्राम मे बापू की झोपडी की ओर जाने से पहसे 'बा' को झोपडी पडती थी। 'वा' या तो चबूतरे पर बैठी सूत पातती मिलती या ऐसा ही कोई वाम करती नजर आती । किसी नये आने वाले अतिथि को पहले 'या' के ही दशन होते। 'या' उसे पहचानती हो या न पहचानती हो, फिर भी बड़े प्रेम से स्वागत करती। उनका सीधा सरल प्रश्न होता, "कहा से आए हैं ? सीधे यही आ रहे हैं या वर्धा होकर आए हैं ? भोजन हुआ या नहीं? गाडी मे बहुत कष्ट तो नही हुआ ?" ऐसी छोटी-छोटी बातें पूछती । भोजन न किया होता तो भोजन कराती । आए अतिथियो को वापू के साथ तो जिस काम के लिए आए हो उसकी चर्चा करने का ही काम रहता था, पर उनकी दूसरी सारी कठिनाई 'वा' ही हल किया करती थी। उनसे वे जब-तब पूछती, "खाना तो अनुकूल होता है न? कोई कष्ट न उठाना भला? किसी चीज को आवश्यकता हो तो मुझसे कहना।" मोतीलाल नेहरू जसे शाही दस्तरखान पर खाने वाले लोग 'बा' की बदौलत ही कई-कई दिन आश्रम मे रह जाते । राजा जी की चाय-कॉफी को चिन्ता 'वा' के सिवा कौन करता? जवाहर- लाल जी के लिए खास जायके वाली चाय 'बा' ही बना देती थी। आश्रम की रीति थी कि भोजन करने के बाद हर एक व्यक्ति अपनी-अपनी थाली माज डाले। एक दिन एक सभ्रात महिला आथम मे आई। वे और 'बा' साथ-साथ खाने बैठी। भोजन के