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घर मे सत्याग्रह एक बार 'वा' को रक्तस्राव का रोग हो गया। बहुत दवा- दारू की, आपरेशन भी कराया, परन्तु लाभ नही हुआ। इसपर बापू ने 'बा' से कहा, "तुम दाल और नमक खाना छोड दो।" बापू ने इसके लाभो का बहुत-सा वर्णन किया, बहुत मनाया, अपने कथन के समर्थन मे इधर-उधर की बहुत बातें पढ़कर सुनाई, पर 'बा' ने नहीं माना । अन्त मे उहोने कहा, "दाल और नमक को तुमसे भी कोई कहे, तो तुम भी नही छोड सकते।" बापू ने कहा, "मुझे रोग हो और कोई वैद्य-हकीम कहे, तो मैं तुरन्त छोड दू । पर तुलो, तुम छोडो या न छोडो, मैंने एक वर्ष के लिए नमक और दाल-सेवन अभी, इसी समय से त्याग दिया।" 'बा' बहुत पछताई। कहने लगी, "मेरी मत मारी गई, तुम्हारा स्वभाव जानते हुए भी हठ ठान बैठी। अव तो मैं दाल और नमक नही खाऊगी, परन्तु तुम अपनी बात लौटा लो। नही तो यह मेरे लिए बड़ी भारी सजा हो जाएगी।" बापू ने कहा, "तुम नमक और दाल छोड दोगी तो बहुत ही अच्छा होगा, उससे तुम्हे अवश्य लाभ होगा। परन्तु में ली हुई प्रतिना को नही लौटा सकता। आदमी क्सिो भी बहाने में सयम पाले, उसे लाभ ही होता है।" 'या' ने आखो में आसू भरकर कहा, "तुम बड़े हठोले हो, पिसी की बात मानते ही नहीं।