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बा 11 जबर्दस्तो पढाने की जो कुछ चेष्टा की भी, वह बेकार हो गई। 'बा' अपढ तो थी, पर ऐसी नहीं थी कि अपनी स्वतन्त्रता को न समझ सकें। वे लम्बी बहस नही करती थी, पर अपने मन की करने में वे किसीके दाबे दबती नहीं थी। इससे बापू चिढ जाते थे।वे ईर्ष्यालु और वहमी पति थे । घमण्डी भी थे ही। परन्तु 'या' अनपढ और कम उम्न होने पर भी यह अच्छी तरह समझती पी कि अपने लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा । इसीसे मयाने होने तक उनकी गृहस्थी निभती गई, और बहुत-से अवसरो पर कलह होते होते टल गया। बापू खुद कहते हैं कि हमारे बीच झगडे तो खूब हुए, लेकिन परिणाम हमेशा शुभ ही रहा । असल में 'बा' ने अपनी अद्भुत सहन-शक्ति से बापू पर विजय पाई। अपने जीवन मे बापू ने तप और सयम के बडे-बडे प्रयोग किए। अत में तो उनका जीवन ही तपोमय बन गया। वे एक महान् विचारक, मनीषी, महाज्ञानी और ऐसे युग-पुरुष थे, जो अपने जीवन में एक के बाद एव अनेक हेर-फेर करते ही चले गए। इधर 'बा' थी अनपढ । फिर भी वे उनके ऊध्र्वगामी जीवन मे कदम-कदम साथ ही रही। उन्होने मन से या बैमन से, जान से या अज्ञान से बापू के पीछे-पीछे विश्वासपूर्वक चलने मे ही अपना जीवन सफल समझा । इतना ही नही, 'बा' ने अपनी नम्रता- सौम्यता से बापू को महात्मा बनने मे भारी सहायता दी, और महात्मा बनने के बाद उनके जीवन को कठोर और रूखा होने से रोककर उन्हे अपने मुहाग के आचल मे बाधे रखकर ससार का 'बापू' बनाया । यह कोई साधारण काम न था। बापू जैसे महा- मानव के साथ चलने में उहें भूकम्प के भारी धक्के सहने पडे और ज्वालामुखी के खौलते हुए लावो का प्रकोप सहना पडा। अपने अपाह आत्मबल और अपूर्व समपण की भावना के बल से, थे इस विभूतिमय दाम्पत्य की सम्पदा की सारी जोखिम लेकर