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६४ आचार्य उपगुप्त लेना सच्ची विजय है । आप पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट् हैं; परन्तु जब आप पृथ्वी की आत्माओ को वशीभूत कर लेंगे तो आपकी अक्षय विजय होगी। आप अमर होगे। सम्राट् ने नतमस्तक होकर कहा-भगवन् ! मुझे सत् ज्ञान प्रदान कीजिए। मैं प्रेम और दया द्वारा प्राणियो की आत्मा को विजय करूगा। क्षमा मेरा शस्त्र, दया मेरी नीति, और त्याग मेरा शासन होगा। "तथास्तु, तब सम्राट, आपका नाम 'चण्डाशोक' के स्थान पर 'देवाना प्रिय' प्रसिद्ध होगा। आपका कल्याण हो, आप आज से देवताओं के प्रिय हुए। कहें : बुद्ध शरण गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि।" सम्राट् ने पृथ्वी पर घुटने टेककर उपर्युक्त पंक्तियों को दुहराया। मोगली- पुत्र तिष्य ने पवित्र अभिसिचन करके कहा-सम्राट् देवानां प्रिय अशोक की जय हो ! आइए सम्राट्, अब मैं आपको आपके आचार्य का परिचय कराऊंगा, जिनसे आपको गुरुवत् व्यवहार करना होगा, जो परम वीतराग, महान् धर्मात्मा और एकनिष्ठ महापुरुष हैं, जिनकी आत्मा मे महान् बुद्ध का निवास है । वे सदैव आपके साथ रहकर आपको कल्याण का मार्ग बताएंगे और आपको सुमति की दीक्षा देगे। उनके वचन का अनुसरण करके आप पृथ्वी पर और स्वर्ग में अक्षय कीर्ति प्राप्त करेंगे। आचार्य तिष्य इतना कहकर पीछे को मुड़े। एक घने कुंज में छोटी-सी कुटिया के द्वार पर जाकर पुकारा-आचार्य उपगुप्त ! सम्राट् आपकी सेवा में उपस्थित आचार्य उपगुप्त-वही श्रेष्ठिराज उपगुप्त-पीत परिधान किए, मण्डित- शिर, विनम्रमुख कुटी से बाहर आए। सम्राट अशोक ने पृथ्वी पर गिरकर उन्हें प्रणाम किया और कहा-आचार्य ! मुझे सन्मार्ग बताइए। आचार्य उपगुप्त की मुद्रा भंग न हुई, न उन्होंने दृष्टि उठाई। उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हुई। आचार्य तिष्य ने कहा-आचार्य ! सम्राट् आपके तत्त्वा- वधान मे पृथ्वी पर धर्म-विस्तार करेगे। आप ही सम्राट् को धर्म बताने के योग्य हैं, आप सम्राट् का प्रणाम ग्रहण कीजिए। !