आचार्य उपगुप्त १३ थी। उस सघन छाया मे बहुत-सी पर्ण-कुटियां बनी थी, जहा भिन्न-भिन्न आयु के वीतराग बौद्ध साधु ज्ञान-चर्चामे मग्न थे। रोगी और घायल पशु और मनुष्यों की चिकित्सा हो रही थी। सहस्रों पशु-पक्षी निर्भय कलोलें कर रहे थे। वृद्ध के पहुचते ही दो साधुओ ने दौड़कर वृद्ध का बोझ ले लिया और वे उसके उपचार में लगे । युवक सैनिक विमूढ-सा खड़ा यह देख रहा था। ऐसी शान्ति और आनन्द उसने अपने जीवन मे नही देखा था। एक नई भावना उसके हृदय मे उदय हो रही थी; वह कुछ सोच रहा था। एक नवीन तेज उसके नेत्रो में दीपित हो रहा था। एक प्रचण्ड जय-घोष हुआ-महामोगली-पुत्र तिष्य' की जय ! युवक ने दृष्टि उठाकर देखा-सम्मुख एक तेज-मूर्ति चली आ रही है। प्रशान्त मुख-मण्डल, गम्भीर गति, महान् व्यक्तित्व । युवक ने सोचा, यह क्या ! यही महाप्राण भगवान् मोगली-पुत्र तिष्य है, जिनके विषय मे सुना गया है कि उनके दर्शन होना दुर्लभ है, और जिसे एक बार उनके दर्शन हो जाते है, वह धन्य समझा जाता है ? युवक एकटक उस महान् शरीर को देखता रहा। भगवान् तिष्य ने युवक के निकट आकर कहा-चक्रवर्ती सम्राट की जय हो। -एक अतयं शक्ति के प्रभाव से सम्राट् ने साधुवर के चरणो मे सिर झुका दिया । भिक्षु-मण्डल अवाक रह गया। भगवान् तिष्य ने कहा-सम्राट, इस वृद्ध भिक्षु ने अज्ञान से यदि कुछ अनाचार किया हो तो क्षमा करे । चक्रवर्ती से इसका परिचय नही। सम्राट् ने कहा-प्रभो । आज मैं कृतकृत्य हुआ। सम्राट् के प्रचण्ड सम्मान और परिच्छद मे मुझे ऐसी शान्ति नही मिली, जो आज मै इस तपोवन में प्राप्त कर रहा हू । भगवान् के दुर्लभ दर्शन पाकर मै और कृतार्थ हुआ। प्रभो ! कलिंग के युद्ध मे मैने एक लक्ष प्राणियो का वध किया है । अब देखता हूं, वध करने से रक्षा करना श्रेष्ठ है । मैं समझता था कि पृथ्वी के महाराज भी मेरा सम्मान करते हैं । परन्तु आज अधम प्राणी को घृणा करते देखकर मेरे मन में प्रबल आत्मग्लानि उदय हुई है। प्रभो, रक्षा करें। यह किंकर आपकी शरण है। "सम्राट् !" भगवान् तिष्य ने कहा-आपकी धर्म मे अभिरुचि हुई,यहबहुत शुभ हुआ। भगवान् बुद्ध ने भी इसी प्रकार अकस्मात् ज्ञान प्राप्त किया था । शक्ति अधिकार द्वारा अधीनो को वश करने की अपेक्षा प्रेम और दया से प्राणिमात्र को जीतना श्रेयस्कर है। शरीर को अधीन करने की अपेक्षा आत्मा को वशीभूत कर
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