आचार्य उपगुप्त से उऋण होऊंगा? कैसे मै अब प्राण देकर कुमार को लाऊ ? और आप जैसे विवेकी वृद्ध के रहते कैसे यह कुकर्म होने पाया ? कुन्द ! स्त्रियो से इसीलिए ज्ञानी पुरुष घृणा करते है, स्त्रिया इतनी तुच्छ है, इतनी स्वार्थी है । हा-हा ! कुन्द तुम सब स्त्रियो में अधम रही-तुमने अपने स्वार्थ के- पति के स्नेह के लिए पवित्र अतिथि को "कहते-कहते श्रेष्ठिवर धरती पर गिर गए। धीरे-धीरे रानी ने घर मे प्रवेश करके कहा-श्रेष्ठिवर | क्या आपको यह विश्वास नहीं होता कि हम तीनो मे से किसीको इस घटना का दुःख नही? फिर कुमार की तो यह इच्छा ही थी। वह वैसे भी सम्राट की सेवा मे जाता। इसके सिवा कुन्द किसी तरह अपमान की पात्री नही। जैसे आप धर्मात्मा, विनयी और महान् है, वैसे ही आपकी धर्मपत्नी भी है । श्रेष्ठिवर ! शोक त्यागकर अब यह उपाय सोचना चाहिए कि हमारा कर्तव्य क्या है। उपगुप्त उठ बैठे। उन्होने कहा-सोचिए। मै किस प्रकार कुमार को ला सकता हूं? तीनों व्यक्तियो मे सलाह हुई। अन्त मे यही निर्णय हुआ कि उन सैनिको के साथ, जो कुमार को ले जा रहे है, हम लोग भी राजधानी को चलें। वहां जैसा कुछ होगा, देखा जाएगा। यह निर्णय करके उपगुप्त ने कुन्द की ओर देखकर स्निग्ध स्वर में कहा-कुन्द ! आओ ! इन पूज्य अतिथियो के सम्मुख हम-तुम भी कुछ परामर्श कर ले ! यह तो तुमने देखा ही कि यह धन कितने अपमान और अधर्म की जड़ है। आओ! हम मन, वचन, कर्म से इस धन का त्याग करें। मैंने श्रेष्ठि- पद त्यागा, मै दरिद्रराज हुआ। आज से धनमात्र मेरे लिए लोष्ठवत् और तुम्हारे लिए भी कुन्द ! कुन्द ने चुपचाप स्वीकृति दे दी। "अच्छा, अब आज से हम लोग न धन छुएगे न धन से हमारा सम्बन्ध रहेगा। अब दूसरी बात सुनो! यह घनिष्ठ सम्बन्ध भी- जैसा कि हमारे-तुम्हारे बीच है-दुःख और पाप का मूल। देखो, इसी घटना ने कितने दुःख और पाप का प्रदर्शन कराया ! आओ, हम लोग इस सम्बन्ध का भी विच्छेद करें। कुन्द आज से हम लोग पति-पत्नी नही। तुम्हारा कल्याण हो, तुम जगत् मे विचरण करो, जगत् की सेवा करो। मैं कुमार को छुड़ाकर तब यह करूगा !" इतना कहकर उपगुप्त उठे । कुन्द वज्राहत की तरह धरती पर गिर गई। उपगुप्त ने उधर देखा
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