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८२ आचार्य उपगुप्त प्यार से उसका हाथ पकड़कर कहा-यहा मार्ग में देर करने से लाभ ? सूर्य छिप गया है, कहीं द्वार बन्द हो गए तो बाहर ही रात काटनी होगी और वन्य पशु फिर लल्ल को सोने न देगे। बालक फिर चला । लल्ल आगे बढ़ा। नगर के दक्षिण द्वार पर नगर-रक्षक रात्रि के लिए नवीन प्रहरियों की गिनती कर रहा था। तीनो यात्रियो ने चुपचाप द्वार में प्रवेश किया। किसीने इन दीन यात्रियों की ओर ध्यान नहीं दिया। लल्ल ने विनीत भाव से युवक से कहा यदि आज्ञा हो तो रात किसी अतिथिशाला मे काट ली जाए, फिर प्रात काल श्रेष्ठिवर का घर ढूढ लिया जाएगा। अब इस समय कहां भटका जाएगा!-इतना कह उसने एक दृष्टि किशोर बालक पर फेकी और युवक की आज्ञा की प्रतीक्षा में खड़ा रहा । युवक ने कहा-यही उचित है लल्ल ! चलो अतिथिशाला में ही रात्रि व्यतीत करें। तीनों यात्री नगर के जन-पथ पर आगे बढे। 66 "श्रेष्ठिवर धनगुप्त का घर क्या यही है ?" "यही है श्रीमान् ! आपका कहां से पधारना हुआ है ? आइए, भीतर आइए, घर को पवित्र कीजिए।" लल्ल से जब एक परम सुन्दर युवक ने अति नम्रतापूर्वक ये शब्द कहे, तब लल्ल आंखें फाड़-फाड़कर उस युवक और सामने के एक साधारण घर को देखने - लगे। "अवश्य ही भ्रम हुआ है महोदय ! क्या आप महाश्रेष्ठि धनगुप्त को जानते "श्रीमान्, यह दास उनका पुत्र है।" "आप ! श्रेष्ठि धनगुप्त के पुत्र ! और यह उनका घर ! आपका शुभ नाम?" "सेवक का नाम उपगुप्त है।" "उपगुप्त, उपगुप्त ! ओह ! सचमुच आप' 'परन्तु श्रेष्ठिवर कहां है ?" "पूज्य पिताजी का स्वर्गवास हुए आठ वर्ष हो गए।" "स्वर्गवास !"- लल्ल ने मुह फैला दिया। "श्रीमान् अवश्य ही पितृ-चरणो के बन्धु है । मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिए।" "उपगुप्त श्रेष्ठिवर !"-इतना कहकर लल्ल ने युवक को दौड़कर भुज-पाश