५० भिक्षुराज की स्फूर्ति पैदा कर दी थी, और कला-कौशल मे उन्नति मचा दी थी। यह सब इस द्वीप के लिए एक चिरस्थायी वरदान था। आज भी वर्ष के प्रत्येक दिन और विशेषकर पौष की पूर्णिमा को, अनेको तीर्थ- यात्री महितेल पर चढते दिखाई देते है, और प्राचीन कथाओ के आधार पर इस महापुरुष से सम्बन्ध रखनेवाले प्रत्येक स्थान की यात्रा करके श्रद्धाजलि भेट करते . जिस स्थान पर महाकुमार का शव-दाह हुआ था, वह स्थान अब भी 'इसी भूमागन' अर्थात् 'पवित्र भूमि' कहाता है, और तब से अब तक उस स्थान के इर्द- गिर्द पचीस मील के घेरे मे जो पुरुष मरता है, यही अन्तिम संस्कार के लिए लाया जाता है। इस राजभिक्षु ने जिन-जिन गुफाओ मे निवास किया था, वे सभी महेन्द्र गुफा कहाती है । अब भी चट्टान मे कटी हुई एक छोटी गुफा को 'महेन्द्र की शय्या' के नाम से पुकारते हैं । पहाडी के दूसरी ओर 'महेन्द्र-कुण्ड' का भग्नावशेष है, जिसे देखकर कहा जा सकता है कि उसपर न जाने कितना बुद्धि-बल और धन खर्च किया गया होगा। क्या भारत के यात्री इस महान् राजभिक्षु की लीला-भूमि को देखने की कभी इच्छा करते है ?
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