मेरी कहानियों की हिन्दी-साहित्य में बहुत कम चर्चा हुई है। शूरवीर समालोचकों ने एक प्रकार से मेरा बायकाट-सा ही कर रखा है। लुत्फ यह है कि ये समालोचक न तो कहानियां पढ़ते हैं, न पढ़ना जानते हैं। इधर-उधर दूसरे आलोचकों की नकल अपने श्रीमुख से भी कर देते हैं। मैं एक ढीठ लेखक हूं और इन समालोचकों की योग्यता से खूब वाकिफ हूं। अत मैं इनकी ओर आंख उठाकर देखता तक नही। न इनकी राय की कानी कौड़ी के बराबर मैं परवाह करता हूं। कहानिया मैं अपने पाठको के लिए लिखता हूं और मेरे पाठक मेरी कहानियों से बहुत खुश हैं, यह मुझे पता लगता रहता है। बहुत दिन हुए एक समालोचक-पुङ्गव ने मेरी किसी कहानी को चोरी का माल शिनाख्त किया था, और मुझपर यह मुकद्दमा खड़ा किया था कि मूल कहानी का अंग-भंग करके मैंने उसे कुत्सित कर दिया है। यों तो मैं आक्षेपों का उत्तर देने का आदी नही हूं, पर उस बार मौज में आकर मैंने इन आक्षेपक महोदय का आरोप बिना सबूत के ही स्वीकार कर लिया था, और स्वेच्छा से मृत्यु-दण्ड की मांग की थी । परन्तु मेरी एक शर्त थी कि कहानी के अंग- भंग करने के अपराध में सजा-ए-मौत को मैं तभी स्वीकार करूंगा जबकि सुयोग्य समालोचक मेरी विधवा लेखनी का पाणिग्रहण कर उसका सौभाग्य सलामत रखें। अफसोस है, फिर वे मैदान में आए ही नही, और मैं अभी तक कागजों की बर्बादी करने के लिए जिन्दा हूं।
सन् १९१७ की बात होगी। उन दिनों मैं बम्बई में प्रैक्टिस करता था। तभी