६४ 2 पर है, उतना ही यदि प्रजा पर भी हो तो आपको सिद्धार्थ से बढकर पुत्र मिल सकते है। आप मेरे लिए मन से पुत्र-भाव निकाल डालिए। यदि आप अपने सामने उसे बुद्ध (ज्ञानी) देखेंगे जो सत्य का शिक्षक और सदाचार का प्रचारक है तो आपको निर्वाण की शाति प्राप्त होगी।-राजा पुत्र की यह वाणी सुनकर आह्लादित हुए। वे आसू भरकर कहने लगे-~-आश्चर्यजनक परिवर्तन है। इस परिवर्तन से हृदय को दुःख और व्याकुलता नहीं होती। पहले मैं शोकपूर्ण था, मानो मेरा हृदय फट जाएगा। अब मै प्रसन्न हू । तुमने जगत् के लिए राज्य-सुख त्यागा। अच्छा, तुम संमार मे अण्टाग मार्ग का प्रचार करो। प्रातःकाल भगवान बुद्ध भिक्षा-पात्र लेकर नगर में भिक्षा के लिए चले । नगर मे हाहाकार मच गया। रथ और हाथियो पर सवार होकर जो पुरुष रत्न बिखेरता था, वह नगे पैर घर-घर एक ग्रास अन्न मागता है। राजा ने कहा [-~~-वत्स गौतम ! ऐसा न करो, मै तुम्हारे भोजन का प्रबन्ध कर दूगा। "पर यह हमारी धर्म-परिपाटी है।" "पर तुम उस राजवंश के हो जिसने कभी भिक्षा नही मागी।" "मैं उस बुद्ध वश मे हू जो सदा भिक्षावृत्ति पर सन्तोष करता आया है।" राजा अवाक् हो, उन्हे राजमहल मे ले आए । राजमन्त्रियो और अन्त पुर की स्त्रियो ने बुद्ध की अर्चना की। बुद्ध ने पूछा-गोपा कहा है ? वह क्यो नही आई ? एक दासी ने बद्धाजलि होकर कहा--स्वामिन्, वे कहती है भगवान को स्वयं ही उनके पास आना चाहिए। बुद्ध तत्क्षण उठकर चल दिए। चार प्रमुख शिष्य उनके साथ थे। गोपा- आनन्द और प्रेम की मधुर लतिका गोपा-अपने सप्तवर्षीय पुत्र के साथ, अपनी समस्त कटु स्मृतियों को कसकर छाती में छिपाए, इस महावीतरागी, अतीत प्रिय पति को धरती पर दृष्टि दिए अपने कक्ष मे आते देख रही थी। द्वार के निकट पहुंच बुद्ध ने अपने शिष्य सारिपुत्र मौद्गल्यायन से कहा-मैं तो माया-पाश से मुक्त हुआ, पर यशोधरा अभी बद्ध है। उसने मुझे चिरकाल से नहीं देखा। वह वियोग से व्याकुल है। यदि मिलन-अभिलाषा अब भी पूर्ण न होगी तो उसका हृदय फट जाएगा। इसलिए मैं तुम्हें सावधान किए देता हूं कि यदि वह मुझे छूना चाहे तो
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