६२ प्रबुद्ध भगवान बुद्ध बैठे है । सम्राट ने चकित होकर सोचा कि शाक्य-मुनि ने क्या कश्यप को अपना आध्यात्मिक गुरु माना है या कश्यप गौतम का शिष्य हो गया है ? बुद्ध ने सम्राट् के सशय को समझकर कहा-कश्यप ! तुमने कौन-सा ज्ञान प्राप्त किया है, और वह कौन-सी बात है जिसने तुमको अग्नि-पूजा और कष्ट- दायक तपश्चर्या छोड़ने के लिए बाध्य किया है ? कश्यप ने कहा-अग्नि की उपासना से दुखो और प्रपंचो के चक्र में पड़े रहने के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं हुआ। अब मैंने इसे त्याग दिया है । तप- स्याओं और पशु-बलिदानों के स्थान मे मैं सर्वोच्च निर्वाण की प्राप्ति के लिए लगा हूं। तब बुद्ध ने आंख उठाकर सम्राट की ओर देखा और कहा-जो अपने 'अह' रूप को जानता है, और समझता है कि इन्द्रिया अपने-अपने कार्यों को किस प्रकार करती है, वह स्वार्थ और अहकार के फेर मे नही पड़ता और अभय शान्ति उप- लब्ध करता है । ससार को 'मैं' का ख्याल है। मेरा शरीर, मेरा धन, मेरा नाम, मेरा रूप, मेरा शत्रु, उसने मुझे गाली दी, उसने मुझे धोखा दिया, उसने मुझे बदनाम किया, इत्यादि सकल्प-विकल्प ही समस्त झूठे भयो और दुष्ट भावों के उत्पादक है। कोई कहते है कि यह 'मैं' मृत्यु के पश्चात् स्थिर रहता है । कोई कहता है, उसका अन्त हो जाता है, परन्तु वे दोनों भूल पर है। इन्द्रियो का पदार्थों के सन्निकर्ष से ज्ञान उत्पन्न होता है । जैसे सूर्य की शक्ति से शीशे मे अव्यक्त अग्नि व्यक्त हो जाती है, उसी प्रकार इन्द्रियां और पदार्थो के मिलने से स्मृति आदि का क्रमशः विकास होता है और चेतना-शक्ति की भिन्न-भिन्न अवस्थाओ के बद- लने से उस सत्ता का प्रादुर्भाव होता है जिसे 'अहं' कहते है। बीज से अंकुर फूटता है, परन्तु अकुर से बीज नही फूटता। दोनो एक नहीं हैं। इस प्रकार 'अहं एक भ्रम है, 'मैं' क्षणिक है। वह क्षण-क्षण में बदलता है। जो इस तत्त्व को समझेगा वह काम, क्रोध, लोभ, मोह को क्षणिक परिणाम समझ, उन्हें दबाने की कोशिश करेगा । स्वार्थ की प्रबल प्रवृत्ति को रोको और फिर तुम मन की उस निश्चय अवस्था को प्राप्त करोगे, जो पूर्ण शान्ति, परम पुरुषार्थ और सत्य ज्ञान की . . दात्री है। -माता जिस प्रकार बच्चे के लिए प्रतिक्षण आत्मबलिदान करती है, उसी प्रकार सत्य-ज्ञाता विवेकी को शुद्ध हृदय से परहित की सदा कामना करनी
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