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प्रबुद्ध . "हे सज्जनो ! मैने तुम्हारा भोजन ग्रहण किया। बुद्ध-पद प्राप्त होने पर यह मेरा प्रथम भोजन हुआ। हे धर्मात्माओ! तुम तथागत बुद्ध के प्रथम शिष्य बने । तथागत बुद्ध का कथन है-जगत् का कोई अन्याय, अत्याचार और पाप स्वार्थ से रहित नहीं । सारे दोषों का मूल स्वार्थी मन के अन्दर है। पाप न धरती में है, न आकाश मे ; न हवा मे, न पानी में, न रात में, न दिन मे ; वह स्वार्थी मनुष्य के मन मे है। ज्ञान तो तभी मिल सकता है, जब स्वार्थ की निस्सारता और अस्थिरता का पूर्ण ज्ञान हो जाए। मनुष्य उच्च और आदर्श जीवन तभी प्राप्त कर सकता है जब उसे यह निश्चय हो जाए कि स्वार्थ-त्याग के बिना कोई मनुष्य आत्मिक जीवन के पवित्र सुख को अनुभव नही कर सकता । यथार्थ सुख स्वार्थपरायणता और विषय-भोग मे नही है, कृत्रिमता और आडम्बर को दूर करने में है।" इतना कहकर बुद्ध मौन हो गए। दोनो व्यापारियों ने चरणों मे गिरकर कहा--हे प्रभु, हम बुद्ध की शरण है, हम बुद्ध के धर्म को ग्रहण करते है । बुद्ध ने नेत्र उठाकर देखा, और दोनो हाथ ऊंचे करके कहा-कल्याण ! कल्याण !! मगध मे हलचल मच गई थी। सभीकी जिह्वा पर एक ही बात थी : शाक्य- मुनि पतियो को वहकाकर पत्नियो से अलग करता है । वह वशो का नाश करता बुद्ध अपने प्रमुख शिष्यों-सहित राजगृह मे पधारे थे। भिक्षु जब नगर मे निकलते तब लोग कहते -देखें, अब किसकी बारी आती है ! सारिपुत्र और मौद्गल्यायन, अश्वजित्, आचार्य महाकश्यप और उनके भ्राता-सभी भगवान बुद्ध के शिष्य हो गए थे। जो प्रख्यात और तत्त्वदर्शी था, राजगृह का वह महाधनपति यशस भी बुद्ध की शरण जा चुका था, और उसके महाधनवान चारो मित्र, जो काशी में रहते थे, उसके अनुयायी बन चुके थे। मगध के सम्राट् बुद्ध के दर्शन को पधारे। सहस्रावधि मनुष्य उनके साथ थे। वे लाखो की सम्पदा भेंट को लाए थे। राजा के साथ उसके सभी मन्त्री और सेनानायक थे। उन्होंने देखा : जटिलो के आचार्य महाकश्यप के साथ . -