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५८ सम्राट् बिम्बसार ने सुनकर गुप्तचरो के द्वारा जाना कि शाक्यवंश का राजा- पुत्र राजपाट त्याग वनवासी हुआ है । वह राजकीय वस्त्र पहन, स्वर्ण-मुकुट सिर पर धारण कर, अमात्यो-सहित उससे मिलने आया । मुनि सिद्धार्थ वृक्ष के नीचे गम्भीर मुख-मुद्रा किए बैठे थे। बिम्बसार ने प्रणाम कर कहा-आपके हाथ में राज्य-रश्मि शोभा देती है, भिक्षा-पात्र नहो । आपका तारुण्य इस तपस्या के योग्य नहीं । श्रेष्ठ और ज्ञानी पुरुषों को शक्तिसम्पन्न होना चाहिए । धर्म खोकर धनी होना उत्तम नहीं, पर धन, धर्म और बल' को प्राप्त कर जो इन्हे दूरदर्शिता से भोग करे वह मेरा गुरु है। मुनि सिद्धार्थ ने आंख उठाकर सम्राट को देखा और कहा-राजन् ! आप धार्मिक और विवेकी हैं, आपका कथन सत्य है; पर मै सारे बन्धनों से पृथक् हो चुका हू, क्योकि मै निर्वाण का इच्छुक हू । जिसे उस सच्चे ज्ञान की अभिलाषा है, उसे उन सब बातो से विरक्त हो जाना चाहिए जो उसके चित्त को अपनी ओर खीचती हैं। उसके लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, अधिकार और वासनाओं का त्याग करना परमावश्यक है। मैने वैभव की असारता को समझ लिया है, और अब मै अमृत के धोखे विष-पान नही करूगा। सम्राट् ! आप मुझपर करुणा करने का कष्ट न उठाइए । करुणा के पात्र वे है जो ससार की चिन्ता मे दिन-रात व्याकुल रहते है, जिनके हृदय मे न शान्ति है और न मन मे एकाग्रता । हे राजन्, कहिए तो एक राजा और भिक्षुक की मृतक देह में क्या अन्तर है ? सम्राट् बिम्बसार ने बद्धाजलि होकर प्रणाम किया और कहा-हे त्यागी ! आप धन्य है ! आपकी कामना पूर्ण हो। परन्तु आप पूर्ण बुद्ध होने पर एक बार मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर कृतार्थ अवश्य करें। मुनि सिद्धार्थ ने सम्राट् की प्रार्थना को स्वीकार किया। "हे विद्वानो! क्या आप ही प्रसिद्ध दार्शनिक और तत्त्ववेत्ता आराद और उदरक है! मै आपसे आत्मा के विषय की जिज्ञासा करने आया हू !" "हे मुनि ! हम वही है । तुम्हे जो संशय हो, कहो।" "मैं यह जानना चाहता हूं कि आत्मा क्या है ?" "आत्मा वह है जो देखता, चखता, सूघता और छूता है ; फिर भी वह न तुम्हारा शरीर है, न आख, कान, नाक और न मुख । आत्मा वह है जो त्वचा द्वारा छूता