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प्रबुद्ध तारो के क्षीण प्रकाश मे वह महान राजकुमार राजपाट, सुख-भोग और ऐश्वर्य पर लात मारकर महान प्रकाश की खोज मे जा रहा था। "चन्न! बस, अब आवश्यकता नही । तुम घोड़ा लेकर राजधानी लौट जाओ।"

  • स्वामिन्, मैं आपको प्राण रहते न छोडं गा ।"

"चन्न | लो ये बहुमूल्य वस्त्र भी तुम ले जाओ। अब कहो, तुम्हारा स्वामी कौन है ?" "महाराज युवराज ! यह आप क्या कर रहे है ?" "ठहरो।" युवराज ने तलवार से अपने सुन्दर केश-गुच्छ काटकर तलवार चन्न के सम्मुख रखकर कहा-लो इसे भी सभालो। चन्न धरती पर गिरकर रोने लगा। वह बोला-प्रभु ! मैं कदापि-कदापि न जाऊगा। "चन्न ! वत्स! हठ मत करो। शोक भी मत करो, आनन्दित हो । मैं सत्य की खोज मे जा रहा है। मैं जगत् को आनन्द प्रदान करूंगा। जाओ वत्स ! पिताजी और गोपा को धैर्य प्रदान करना।" एक आन्तरिक तेज से दीप्त पुरुष की तरह सिद्धार्थ चल दिए। चन्न पछाड़ खाकर गिर पड़ा। सिद्धार्थ के नेत्र सत्य के प्रचण्ड उत्साह से देदीप्यमान हो रहे थे। उनका यौवन-सौन्दर्य उस पवित्र तेज में परिवर्तित हो गया था जो उनके श्रीमुख पर दृष्टिगोचर हो रहा था। राजगृह महानगरी जनपूर्ण हो रही थी। प्रतापी बिम्बसार वहा के सम्राट थे। जब मध्याह्नकाल होता-गृहस्थ भोजन कर चुकते-वीतरागी सिद्धार्थ भिक्षा-पात्र हाथ मे लिए नगर की गलियो मे भिक्षा मागने निकलते। वह प्रभा- वान मुखमण्डल, विनम्र गति, पृथ्वी पर झुके हुए नेत्र और ओष्ठसम्पुट से मृदु- ध्वनि से निकलनेवाला 'कल्याण' शब्द नगरवासियो के लिए अपूर्व था। वे प्रत्येक घर से एक ग्रास भोजन ग्रहण करते थे, और बारह ग्रास लेकर नगर के बाहर चले जाते थे। जनपथ और राजपथ पर उनके पीछे भीड़ लगी रहती। आबालवृद्ध उनके लिए मार्ग छोड़ देते, उनके भिक्षा-पात्र में ग्रास डालकर कृतार्थ होते, और सोचते : कोई महान मुनि नगर मे आए है ।