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५२ प्रबुद्ध नहीं सकती थी। कुमार के भाव को वह कुछ समझ न सकी, पर 'हृदय विदीर्ण' होने की भावना वह सह न सकी-वह पति के वक्षस्थल पर गिरकर फूट-फूटकर रो उठी। एक बार महाराजकुमार की अन्तर्हित प्रबुद्ध सत्ता फिर मूछित हुई। उन्होने गोपा को गाढा आलिगन करके बार-बार उसका चुम्बन किया। धीरे-धीरे दोनो प्राणी शयनकक्ष की ओर चले गए। "देखो प्रिये, यह क्या हो रहा है ?" कुमार ने मुझीकर डाली पर झुके एक पुष्प की ओर सकेत करके कहा। गोपा ने देखा और वह आश्चर्चवकित हो कुमार की तरफ देखकर बोली- आर्यपुत्र का अभिप्राय क्या है ? "अभी कुछ देर पूर्व मूर्य की किरणो ने इस पुष्प को छुआ, यह खिल पड़ा। सूर्य तो अस्त हो रहा है और यह मुर्भा रहा है। अब यह सूखकर झड़ जाएगा।" यह कहकर उन्होने पत्नी की ओर देखा। गोपा कुमार की मुख-मुद्रा को एकटक देख रही थी। कुमार ने फिर कहा- गोपा प्रिये ! मनुष्य का जीवन भी ऐसा ही है। उनकी दृष्टि गोपा के मुख से हटकर एक बार दोलायमान हुई और फिर वह दूर क्षितिज पर डूबते हुए सूर्य पर अटक गई । मुख पर कुछ हास्य-रेखा आई, पर वह गई नही । वे जड़वत् वैसे ही बैठे रहे। गोपा घबरा गई । उसने कहा-आर्यपुत्र, अब और क्या विचार रहे है ? कुमार ने चौककर कहा-ओह कुछ भी तो नही, प्रिये ! आज मैं नगर मे गया था। वहां मैंने राजपथ पर एक पुरुष देखा, वह एक लाठी के सहारे बड़े कष्ट से चल रहा था। उसके नेत्र इतने निभ्रमथे कि उनकी अपेक्षानेत्र न होते तो हानि न थी; दात सभी गिर गए थे। उससे उसका मुख तो विकृत हो ही गया था, वाणी भी अस्पप्ट हो गई थी, उसकी खाल काली होकर लटक गई थी और ड्डिया चमक रही थी। उसका अंग-अग काप रहा था। वह बड़े चाव से मेरीओर देख रहा था। मैं उसके निकट गया। उसने कापते-कांपते हाथ ऊपर उठाकर मेरा अभिवादन किया और कहा-कुमार ! एक दिन मैं तुमसे भी अधिक सुन्दर था, और एक दिन तुम भी ऐसे ही ही जाओगे । मैने सोचकर देखा । प्रिये ! उसका