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४६ मे यह प्रेम किस महाभाग ने प्राप्त किया ? गौतम ने यशोधरा का आचल खीचकर कहा-गोपा प्रिये! अब बस करो,चंगेरी तो भर चुकी । अब इन पुष्पों को लताओ में इसी तरह विकसित छोड दो । ये कल तक तो खिले रह सकेगे? देखो, जिन डालियों के पुष्प तुम तोड़ चुकी हो वे कितनी अशोभनीय हो गई हैं ? "होने दो, आर्यपुत्र ! ये कल फिर फूलो से लद जाएंगी। यह तो प्रकृति का स्वभाव है । आप व्यर्थ ही इतना विषाद करते है।" "व्यर्थ ? नहीं प्रिये ! इन कुसुम-लतिकाओं के प्रति तुम्हारा आचरण नितांत निष्ठुर है। अभी प्रात काल तो तुम इन्हे अपने हाथो सोच रही थी-सो क्या इसीलिए?" "और नही तो क्या ? आर्यपुत्र क्या मुझे ऐसी ही निःस्वार्थ समझे बैठे है ? -मैने सीचा है तो फूल भी चुनूगी। यह तो जगत् की गति ही है। और यह निष्ठुर आचरण क्या इतना ही ? अभी तो मै रुचि से गूथकर माला बनाऊंगी। ये यूथिका, चम्पा और कुन्द क्या यो ही अस्त-व्यस्त चगेरी मे पड़े रहेंगे, जैसे आर्य- पुत्र के विचार पड़े रहते है ?" "उलाहना मत दो, प्रिये ! तुम्हें तो उदार होना ही चाहिए। तुम राजनन्दिनी हो, हाय-हाय ! क्या तुम इन कोमल पुष्पो को सुई से विद्ध भी करोगी ?" "आर्यपुत्र! देखते रहे, मैं एक-एक को विद्ध करूंगी। मैं राजनन्दिनी हूं, पालन करना, कर ग्रहण करना और दण्ड-भय से शासन और सुव्यवस्था बनाए रखना मेरा कर्तव्य है। जल-सिंचन करके मैंने पालन किया, पुष्प-चयन करके कर ग्रहण कर रही हूं, और अब सूची-शस्त्र के बल से सुव्यवस्थित करके माला बनाऊंगी। फिर आर्यपुत्र के वक्षस्थल पर वह सुशोभित होगी ; और मेरे परिश्रम का वेतन मुझे प्राप्त होगा।"-इतना कहकर गोपा हस पडी। महाराजकुमार सिद्धार्थ ने उसे दृढता से पकड़कर कहा-पर मैं विद्रोह करूंगा, अब मैं तुम्हें अधिक यह कर-शोषण नहीं करने दूगा, प्रिये! चाहो तो मुझे दण्ड दो। "अच्छी बात है ? मैं तुम्हे बाधकर डाले देती है।" इतना कहकर गोपा ने अपने दृढ़ भुज-पाश में कुमार को बाध लिया। महाराजकुमार के अन्तस्तल में सदैव जागरित प्रबुद्ध सत्ता उस मद से क्षण-