यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४६ प्रबुद्ध महाराज ने हठात् खडे होकर कहा-जाओ, जाओ, राजमहिषी से कहो कि वे राजनन्दिनी का यथेष्ट स्वागत करे। महामात्य ने नतमस्तक होकर कहा-तो अब मै जाता हू "शिवास्ते पन्थानः सन्तु !" महाराज फिर अलिन्द मे अकेले रह गए। उस समय न जाने कितनी सुखद स्मृतियां उनके हृत्पिण्ड को विकसित कर रही थी। - वायु-मण्डप की एक स्वच्छ शिला पर राजकुमार सिद्धार्थ विषण्णवदन बैठे थे। उनके शरीर पर केवल एक उत्तरीय और अधोवस्त्र था। वे मानो किसी गहन चिंता में मग्न थे । वसन्त की मृदुल वायु उनके काक-पक्ष को लहरा रही थी। कुसुम गुच्छ झूम-झूमकर सौरभ बखेर रहे थे। तप्त स्वर्ण के समान उनकी शरीर- कान्ति उन महीन वस्त्रों से बिखरी पड़ती थी। उनका मुख, चिन्तन की गम्भीर भावना के कारण प्रस्फुटित किशोरावस्था की उत्फुल्लता से रहित हो गया था; पर उसका अप्रितम सौन्दर्य कुछ और ही रग ला रहा था। उनकी सुडौल गर्दन, विशाल वक्षस्थल, प्रलम्ब बाहु और केहरी जैसी ठवन असाधारण थी। सुकोमल हृद्गत भाव, सुकुमार देह और पुस्त्व का उद्गम एक अलौकिक मिश्रण बना रहा था। वे शिलाखण्ड पर बैठे दोनो हाथो में जानु देकर सम्मुख पुष्करिणी में खिले एक कमल पुष्प पर बार-बार मत्त भ्रमण का प्रणय-आक्रमण देख रहे थे। परन्तु उस विनोद का कुछ प्रभाव उनके हृदय पर था-यह नहीं कहा जा सकता। उनकी दृष्टि भ्रमर पर थी अवश्य, पर वे किसी गूढ़ जगत् में विचर रहे थे। कभी-कभी उनके होंठ फड़क उठते और कोई शब्द-ध्वनि उनमें से निकल जाती थी। वे इतने मग्न थे कि कब कौन उनके निकट आ खड़ा हुआ है, यह उन्हे ज्ञात ही नहीं हुआ। पीछे से स्पर्श पाकर उन्होंने चौककर देखा और सम्भ्रान्त भाव से खड़े होकर वे आगत् वृद्ध पुरुष को प्रणाम करते हुए बोले-आर्य की उपस्थिति का कुछ भी भान नही हुआ! वृद्ध महापुरुष ने हंसकर कहा-होगा कैसे, तुम स्वयं उपस्थित रहो तब न ? क्षण-भर भी एकान्त हुआ और तुम गम्भीर चिन्तन में मग्न हुए। कुमार ! क्या प्रतापी शाक्यवंश के एकमात्र उत्तराधिकारी के लिए यह उचित है ? "आर्य, क्षमा कीजिए। मैं भविष्य मे इसका ध्यान रखूगा; परन्तु"आज मेरी