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४२ अबुलफज़ल-वध महाराज ने सुना, तो नंगी पीठ घोडे पर चढ़कर दौड़े। बीच मैदान मे ही दोनों की मुठभेड हो गई। शेख ने तलवार खीचकर कहा, "तुम्हीं वीरसिंहदेव हो?" "मै ही हू शेख साहब, मेरी आपसे एक अर्ज़ है !" "अर्ज़ सुनने की फुर्सत नही ! वार रोको।" इतना कहकर शेख ने वार किया। महाराज ने पीछे हटकर कहा, "शेख साहब, जरा ठहरिए; मेरी बात सुन लीजिए।" शेख ने कहा, "तुझपर लानत है, लडाई के वक्त बातें करना चाहता है। तूने मुझे रोकने की जुर्रत क्यो की ? शेख अबुलफजल इस गुस्ताखी को यो ही नहीं बर्दाश्त करेगा।" शेख ने तडातड़ वार करने शुरू किए। महाराज वीरसिंहदेव ने और कुछ वार बचाए। अन्त में वे भी युद्ध करने लगे । दोनो ओर की सेनाएं कुछ क्षण युद्ध देखती रही । हठात् मुगल-दल अर्राकर दौड़ पडा । महाराज की सेना भी टूट पड़ी। एक बार महाराज ने फिर युद्ध रोकने की चेष्टा की, परन्तु इतने ही मे एक गोली शेख की कनपटी को चीरती हुई निकल गई । शेख तत्क्षण मरकर धरती मे गिर गए। उनके गिरते ही शाही फौज तितर-बितर हो गई। महाराज खिन्नवदन शिविर मे लौट आए। 6 शाहजादा सलीम अन्तःपुर के निकट, नजरबाग के बीचोबीच, एक संगमरमर के चबूतरे पर, कीमती ईरानी कालीन पर बिछे हुए एक सोने के सिंहासन पर,मस- नद लगाए बैठे थे। मिरजा गौर ने एक थाल शाहजादे के सामने पेश किया। सलीम ने कहा, "क्या लाए हो?" "तोहफा है हुजूर!" मिरज़ा ने लाल रेशमी रूमाल उठा लिया,थाल में अबुल- फजल का सिर था। सलीम उछल पड़े। उन्होने कहा, "मिरजा, तुम्हे भरपूर इनाम मिलेगा, महा- राज कहां हैं ?" "वे बाहर शाहजादे के हुक्म की इन्तज़ारी में खड़े है।" महाराज ने धीरे-धीरे आकर शाहजादे को कोर्निश करके कहा, "शाहजादा, आशा है आप सन्तुष्ट होंगे, वह अनुचित काम मैने अन्ततः अंजाम दे दिया।" .