85 अबुलफजल-वध पन्द्रह हजार सेना से लड़ोगे कैसे?" "क्या मेरी तलवार मे दम नही ?" "बहुत है।" "तब ?" "इससे बहुत काम लिया जाएगा; मुकुट, अभी इसे सुरक्षित रहने दो। हा, मिरजा, फिर तुम्हारा क्या विचार है ? देखो, उधर सम्राट अकबर की शत्रुता, इधर एक वंश, एक रक्त के भाई का विश्वासघात । घर का द्रोह तो कुछ करने ही न देगा।" "परन्तु महाराज, सम्राट् स्वयं बड़ी मुसीबत मे है। उधर मेवाड़ मे युद्ध हो रहा है, प्रताप ने उनकी जान आफत में डाल रखी है। इधर सलीम ने विद्रोह का झंडा खड़ा किया है। महाराज, दिल्ली के तख्त का यह गृह कलह ही हमारी संधि है। महाराज को इससे लाभ उठाना चाहिए।" "तुम चाहते क्या हो?" "महाराज, चुपचाप प्रयाग चलकर सूबेदार और शाहजादे सलीम से मुलाकात करें; फिर जो कुछ होना होगा, स्वय ही हो जाएगा।" "और यदि शाहजादे ने मुझे शरण न दी ?" "शाहजादा स्वय आपकी शरण में आवेगा, इसका जिम्मा मेरे ऊपर रहा।" "यह कैसे?" "उसे महाराज की सहायता की बड़ी जरूरत है।" "किस तरह ?" "यह महाराज वहां चलकर ही जानेगे।" राजा वीरसिंह सोचने लगे। अन्त मे कहा, "मिरजा, अब और कोई उपाय नहीं, चलो प्रयाग । विलंब का काम नही, अभी कूच होगा। मुकुट, घोड़े ले आओ।" 'जो आज्ञा' कहकर मुकुट उठकर चला गया। दोनों योद्धा लम्बी यात्रा की तैयारी करने लगे। इलाहाबाद-दुर्ग के रगमहल से सटे हुए, एक छोटे-से किन्तु अत्यन्त सुसज्जित कमरे में शाहजादा सलीम चिन्तामग्न, म्लान-मुख बैठे थे। उनका पीला और दुबला चेहरा, कुछ गढ़े में धंसी हुई उनींदी आंखें उनकी विलासिता को स्पष्ट
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