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बावचिन से कहां छिपाकर रखी। गदर में वह रही या मेरे बाबाजान के तख्त के साथ वह भी गई ? इलाहीबख्श का मुंह काला पड़ गया। बदहवासी की हालत में उनके मुंह से निकल पड़ा-आप शाहजादी गुलबानू ? गुलबानू ने शात स्वर में कहा-वही हू जनाब ! मगर डरिएगा नही ! अगर गदर में मेरी अमानत लुट भी गई होगी तो वह मागने जनाब की खिदमत मे नही आई हूं। अब गुलबानू शाहजादी नहीं हुजूर की कनीज़ है-महज़ बावचिन है ! मेरे आका, क्या बांदी के हाथ का खाना पसन्द आया? क्या बदनसीब गुलबानू की नौकरी बहाल रह सकेगी? इलाहीबख्श बेहोश होने लगे । वे सिर पकड़कर वही बैठ गए। गुलबानू ने पंखा लेकर झलते हुए कहा-जनाब के दुश्मनों की तबियत नासाज़ तो नही, क्या किसीको बुलाऊं? इलाहीबख्श जमीन पर गिरकर शाहजादी का पल्ला चूमकर बोले-शाह- जादी, माफ करना ! मैं नमकहराम हूं। "मैं जानती हूं, मगर हुजूर, यह तो बहुत छोटा कसूर है। क्या हुजूर यह नही जानते कि औरतें दिल और मुहब्बत को सल्तनत से बहुत बड़ी चीज समझती हैं ? क्या आप यकीन करेगे कि बारह साल तक मैं आपकी उस जमीन मे घायल तड़पती सूरत को आंखों मे बसाकर जीती रही । जो कुछ बन सका बाबाजान से कहकर किया। मैं जानती थी कि मिल न सकूगी, मगर आपको दुनिया में एक रुतबा देने की हसरत थी-वह पूरी हुई।" इलाहीबख्श पागल की तरह मुह फाड़कर सुन रहे थे। शाहजादी ने कहा-जब बाबाजान ने आपके दगा और अंग्रेजो से आपके मिल जाने का हाल कहा तो दिल टूट गया। मगर उस दिल से अब काम ही क्या ? वह टूटे या साबुत रहे, आखिर अनहोनी तो हो गई--एक बार फिर मुलाकात हो गई। जहे किस्मत ! इलाहीबख्श भागे। वे चुपचाप घर से निकले। नौकर-चाकर देख रहे थे। उसके बाद किसीने फिर उन्हें नहीं देखा।