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बावचिन २७ चौक की नहर से मिल गया था; और जहा कम्पनी बाग और कमेटी की लाल सगीन इमारत खड़ी है, वहां एक बडी भारी किन्तु खस्ताहाल सराय थी, जिसकी बुजियां टूट गई थी और जहा अनगिनत खच्चर,टटू, बैलगाड़िया, घोड़े और परदेसी बेतरतीबी से पेड़ो के नीचे या बेमरम्मत कोठरियों मे भरे हुए थे। जिस समय पालकी वहा से गुजर रही थी, उस समय हौज़ पर खासा धोबी- घाट लगा हुआ था । कोई नहा रहा था, कोई साबुन से कपड़े धो रहा था। सराय के टूटे किन्तु सगीन फाटक पर देशी-विदेशी आदमियो का जमघट लगा था। पालकी अवश्य ही कही दूर से आ रही थी। कहार लोग पसीने से लथपथ हो रहे थे । उनका दम फूल रहा था और वे लड़खडा रहे थे। पीछे से अफसर तेज चलने की ताकीद कर रहा था, मगर ऐसा मालूम होता था कि अब और तेज चलना असम्भव है। कहारों मे एक बूढा कहार था। उसका हाल बहुत बुरा हो रहा था। कुछ कदम और चलकर वह ठोकर खाकर गिर पड़ा, पालकी रुक गई। तातारी बादिया झिझककर खड़ी हो गई। अफसर ने घोड़ा बढ़ाया । बूढा अभी संभला न था । एक चाबुक सपाक से उसकी गर्दन और कनपटी की चमडी उधेड़ गया। साथ ही बिजली की कड़क की तरह उसके कान मे शब्द पड़े-उठ, उठ, ओ दोज़ख के कुत्ते ! देर हो रही है। कहार ने उठने की चेष्टा की, पर उठ न सका। वह गिर गया। गिरते ही दस-बीस, पचीस-पचास चाबुक तडातड़ पड़े, खून का फव्वारा छूटा और कहार का जीवन-प्रदीप बुझ गया !! लाश को पैर की ठोकर से ढकेलकर अफसर ने खूनी आंख भीड पर दौड़ाई। एक गठीला गौरवर्ण युवक मैले और फटे वस्त्र पहने भीड़ में सबसे आगे खड़ा था। मुश्किल से रेखें भीगी होगी। अफसर ने डपटकर उसे पालकी उठाने का हुक्म दिया। युवक आगे बड़ा । दूसरे ही क्षण सपाक से एक चाबुक उसकी पीठ पर पड़ा और साथ ही ये शब्द-साला, जल्दी ! युवक ने क्रुद्ध स्वर मे कहा-जनाब! हुक्म बजा लाता हू, मगर जबान सभाल' दस-बीस चाबुक खाकर युवक वही तड़पकर गिर गया। उसकी नाक और मुह से खून का फव्वारा बह चला । अफसर ने और एक आदमी को कन्धा लगाने