विधवाश्रम २४६ "तब फिर आपको उसकी इतनी चिंता क्यो है ? लाखो वेश्याओ की लड़कियां यही करती है।" "मै सिर्फ इसका उद्धार चाहता हूं, और आपकी सेवा से भी बाहर नहीं।" "आप किस तरह काम करना चाहते है-खुलासा कहिए।" "सुनिए, मै किसी तरह उसे वहा से निकाल लाऊंगा, बाज़ार मे सौदा खरीदने के बहाने । उसकी मा मुझपर विश्वास करती है, भेज देगी। फिर मै उसे डिप्टी कमिश्नर के पास भेज दूगा । वहा वह कह देगी कि मेरी मा मुझसे बुरा काम कराना चाहती है। उससे मुझे बचाया जाए। जब उससे पूछा जाएगा कि तू कहा जाना चाहती है, तब वह आश्रम मे आने को कह देगी। उसे आप यहा रख ले, और हम जिस आदमी से कहे उसकी शादी उसी रात को कर दे। ये दो सौ रुपये आपकी नज़र हैं।" "और वह आदमी कौन है ?" "मेरा नौकर है।" "समझ गया, इस ढग से आप उस लड़की पर अधिकार करना चाहते है। मगर वह नौकर शादी होने पर आपके हत्थे क्यों लडकी को चढने देगा?" "वह आठ रुपये माहवार पाता है । उससे हमने ज़बानी तय कर लिया है कि लडकी पर उसे कोई दखल नही होगा इकरारनामा भी लिखा लिया है कि इसकी मर्जी के माफिक अगर मै इसका भरण-पोपण न कर सक, तो लड़की को स्वतन्त्र रहने का अधिकार है । वह इकरारनामा मेरे पास है।" "बडे उस्ताद हो। दो सौ रुपये लाए हो?" "ये हाज़िर है।" "जाओ अपना काम करो, लडकी को यहा भेज दो। मगर देखो, वह इस शादी में ना-नू तो न करेगी?" "जरा भी नहीं।" "तब ठीक।" "विधवाश्रम का आज वार्षिकोत्सर था। सभास्थान खूब सजाया गया था। लाल-पीले कपड़ों पर वेद-मन्त्र लिखकर लटका दिए गए थे। धर्म और सत्यकर्म का प्रवाह बह रहा था। 'नमस्ते' की गूज आसमान को चीर रही थी। बहुत-सी स्त्रिया ।
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