विधवाश्रम २४५ 61 आखें छोटी, नाक पतली और लम्बी, माथा तग और पीला था। उसके दात बडे गन्दे थे, और मूछ बडी बेतरतीब थी। वह ठिगना, मोटा और बेहूदा-सा आदमी था। उसने आकर जरा हसकर कहा-क्या हुक्म है ? "वही मामला है, बस समझ लो।" "सब समझ चुका हूं, सुन लिया है।" "बताओ फिर क्या करना होगा ?" "करना-धरना क्या है, ज़रा शर्मीली नवेली बनकर चली जाओ। दस-पांच दिन खूब शर्मीली बनी रहना, बूढे को अच्छी तरह सुलगाना। पात-सात गहने वसूल करना, उसे रिझाना । मौका पाकर चिट्ठी मे भागने की तारीख लिखना; समय भी लिख देना । समय वही सन्ध्या का ठीक है। मै गली में मिल जाऊगा, सवारी तैयार रहेगी। हम लोग अगले स्टेशन से सवार होगे। पांच-सात दिन पहले की भाति सैर करेगे, फिर यहा आएगे।" बलवन्त ने युवती को घूरकर हंस दिया। युवती ने नटखटपने से हसकर कहा-बस, इस बार तुम्हारे चकमे मे मै नही आने की, सैर- सपाटा नहीं होगा, मै सीधी यही आऊंगी। "कैसी बेवकूफ हो, जब वह यहां ढूढ़ने आएगा, तब क्या होगा?" "मैं क्या जानू ?" "बस, तो जब ऐसी अनजान हो तो जैसा हमारा बन्दोबस्त है, वही करो। तुम्हारे गायब होते ही वह सीधा यहीं दौड़ेगा । और आश्रम का कोना-कोना छान- कर चला जाएगा । बस आश्रम की ज़िम्मेदारी खतम । फिर दूसरा उल्लू देखेंगे।" "और इतने दिन तुम अपनी मनमानी करोगे ?" "देखो प्यारी, मेरे विषय में ऐसी बात मत कहो। दो-दो बार तुम्हारे लिए मै जान हथेली पर धर चुका हूं। तुम्हे मैं दिल से चाहता हूं। अन्त मे तो और दो-चार खेल खेलकर तुम मेरी होगी।" "चलो हटो, मैं तुम्हारा मतलब खूब जानती हूं। तुमने जानकी से भी ऐसे ही कौल-करार किए थे। आखिर जब झगड़ा पडा तो साफ बच गए, वेचारी को जेल जाना पड़ा।" "नही प्यारी, ऐसा न कहो; कसूर उसीका था।" "खैर, जाने दो। तो अब क्या बात पक्की रही?" "वहीं, जो मैं कह चुका हू।" 1
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