२४ लालारुख मुग्धा राजकुमारी का कोमल कर अपने होठों से लगा लिया। शाहजादी चीख उठी। उसने अपना हाथ खींच लिया, पर दूसरे ही क्षण उसने कहा-ओह इब्राहीम, मै तुम्हारे बिना नहीं जी सकती। और वह मूर्छित होकर कवि पर झुक गई। शालामार बाग में शाहजादी ने कुछ दिन मुकाम करने की इच्छा प्रकट की। कश्मीर से शाहजादे के तकाजे आ रहे थे कि जल्द सवारी आए, पर शाहजादी शाहजादे के पास जाते घबराती थी। वह अपना हृदय कवि को दे चुकी थी। वैसी ही चांदनी थी, सगमरमर की एक पटिया पर दोनों प्रेमी बैठे थे। फूलो का ढेर और शीराजी सामने रखी थी। शाहजादी ने कहा-प्यारे इब्राहीम, इस कदर मुतफिक्र क्यो हो? "शाहजादी, हम जो कुछ कर रहे है उसका अंजाम क्या होगा? शाहजादा जब भेद जान लेगे तो हमारी जान की खैर नही । मुझे अपनी ज़रा भी परवा नही, पर आपको उस प्रलय मे मैं न देख सकूगा।" "ओह इब्राहीम, शाहजादे बहुत उदार है, वे समझते होगे मुहब्बत में किसीका जोर-जुल्म नही चलता। वे हमे माफ कर देगे।" "नही शाहजादी, वे तुम्हे अपनी जान से ज्यादा चाहते है, माफ न करेगे।" "तो इब्राहीम, मैं खुशी से तुम्हारे साथ मरूगी। क्या तुम मौत से डरते हो?" "नहीं दिलरुबा, और खासकर इस प्यारी मौत से।" "तो फिर यह राज क्यों पोशीदा रखा जाए ? शाहजादे को लिख दिया जाए।" "ये तमाम ठाट-बाट हवा हो जाएगे।" "उसकी परवा नहीं, तुम मेरे सामने बैठकर इसी तरह गाया करना, मैं तुम्हारे लिए रोटियां पकाया करूंगी।" "प्यारी शाहजादी ! बेहतर हो, इस गुलाम को भूल जाओ।" "ऐसा न कहो, यह कलमा सुनने से दिल धड़क उम्ता है।" "तो फिर तुम्हारा क्या हुक्म है ?" "शाहजादे को मैं सब हकीकत लिख भेजूगी।" "तुम क्यों, यह काम मैं करूंगा, फिर नतीजा चाहे जो भी हो।" इब्राहीम के गिरफ्तार होने की खबर आग की तरह शाहजादी के लश्कर में
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