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२३६ विधवाश्रम . आश्रम मे आने पर आपको तीन नाम और पेटेण्ट करने पड़-पिता जी, अधिष्ठाता जी और सरक्षक जी। चारो धर्मात्मा बैठे धीरे-धीरे बातचीत कर रहे थे कि भीतर से एक स्त्री ने आकर कहा-पिता जी ! लुगाइयां तो दोनो बहुत बढिया है। "अच्छा!" "दोनो की उठती उम्र है, रंग भी खूब निखरा हुआ है, पर दोनो बुरी तरह रो रही है।" "अच्छा, उन्हे कुछ खिला-पिलाकर बातचीत से खुश करो, और अलग-अलग कोठरियो मे सुला दो।" इतना कहकर पिता जी, उर्फ डाक्टर जी, उर्फ अधिष्ठाता जी ने बूढे बकरे की तरह दात निकाल दिए और अपनी मनहूस आखो को क्षणभर के लिए सामने बिखरे हुए कागजो पर से उठाकर बात करनेवाली धरमपुत्री (?) की ओर धूर दिया। धरमपुत्री उसी तरह कटाक्ष फेक और दातो की बहार दिखाती हुई चल दी। इस धरमपुत्री की उम्र लगभग तीस वर्ष, रंग कोयले के समान, जिस्म लम्बा, बदन छरहरा और चेहरा पानीदार था। दात चमकीले, आखे तेज़ और चचल तथा वाणी साफ और लच्छेदार थी। यही आश्रम की सरक्षिका, इस छोट-से स्त्री- जेलखाने की सुपरिण्टेण्डेण्ट, और इस पाप-महल की सर्वतन्त्र स्वतन्त्र महारानी थी। नाम था प्रेमदेवी। . . . उसी दिन, दिन के तीन बजे विधवाश्रम के बाहर बैठकखाने में, चारो मूर्तिया एक टेबिल पर विराजमान थी। चारों पुरुषों मे जोप्रधान पुरुष थे-वे वही हमारे डाक्टर जी थे। वे अपने स्वभाव-सिद्ध ढंग पर गर्दन टेढी किए पेसिल से लिखते हुए कुछ भुनभुनाते जाते थे। उनकी बाई ओर जो व्यक्ति थे, उनका मुह पिचका हुआ, आखे गढ़े मे घुसी हुई, लम्बी गर्दन और बडी-सी नाक थी, सिर पर मैली खद्दर की टोपी थी। ये बड़े ध्यान से डाक्टर जी की बात में दत्तचित्त हो रहे थे। असल में ये आश्रम के सेक्रेटरी थे और सिर्फ पच्चीस रुपये आनरेरियम पाते थे। उनके बराबर तीसरे व्यक्ति एक नवयुवक थे। इनकी घिनौनी मूछे बड़े भद्दे ढग से मुख पर फैल रही थी। आंखो मे शरारत और चेष्टा में बदमाशी साफ झलक रही थी। ये डाक्टर जी के हुक्म के मुताबिक सामने रखे हुए, खुले कागजों की फाइल