लालारुख २३ बादी 'जो हुक्म' कहकर चली गई। और कुछ क्षण बाद ही मूर्तिमती कविता और संगीत की मधुर धार उस भावुक शाहजादी के मानस-सरोवर में हिलोरें लेने लगी। . वह सोचने लगी, जिसका कण्ठ-स्वर इतना सुन्दर है, और जिसका भाव इतना मधुर है, वह कितना सुन्दर होगा ! शाहजादी की इच्छा उसे एक बार आख भर- कर देख लेने की हुई । शाहजादे ने कहला भेजा था कि उससे पर्दा न किया जाए। परन्तु शाहजादी इतनी हिम्मत न कर सकी। उसने प्रधान दासी के द्वारा कवि से कहला भेजा कि वह नित्य इसी भाति शाहजादी के लिए गाया करे तो शाहजादी उसका एहसान मानेगी। उस दिन से दिन-भर शाहजादी उस अमूर्त सगीत के रूप की कल्पना विविध भांति करने लगी, और जब वह स्वर्ण क्षण आता तो उस स्वर- सुधा मे मस्त हो जाती। कश्मीर धीरे-धीरे निकट आ रहा था। शाहजादे से मिलने का दिन निकट आ रहा था। तमाम कश्मीर मे शाहजादी के स्वागत की बड़ी तैयारियां हो रही है, इसकी खबर रोज शाहजादी को लग रही थी, पर शाहजादी का दिल धड़क रहा था। क्या सचमुच यह अमूर्त सगीत एक दिन विलीन हो जाएगा? धीरे-धीरे शाहजादी के मन में साक्षात् करने की इच्छा बलवती होने लगी। शालामार की सुन्दर और स्वर्गीय छटा अवलोकन करती हुई लालारुख अन- मनी-सी बैठी थी। अब वह उस अमूर्त के दर्शन से नेत्रों को धन्य करना चाहती थी। उसने उस स्निग्ध चादनी के एकान्त मे उस कवि को बुला भेजा था। हाथ में वीणा लिए जब उसने घुटने टेककर शाहजादी को अभिवादन किया, तब क्षण-भर के लिए शाहजादी स्तम्भित रह गई। उसके होठ कांपकर रह गए, बोल न सकी। कवि ने कहा- हुजूर शाहजादी ने गुलाम को रूबरू होने का हुक्म देकर उसे निहाल कर दिया। "मैं, मैं तुम्हें बिना देखे न रह सकी।" "शाहजादी का क्या हुक्म है ?" "एक बार इस चादनी मे मेरे सामने बैठकर वही प्यारा संगीत सुना दो।" "जो हुक्म।" कवि की उंगलियों ने तारों में कम्पन उत्पन्न किया, साथ ही कण्ठ का मधु प्रवाहित हुआ। शाहजादी उसमे खो गई। गाना खत्म कर कवि ने साहस करके
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