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बाहर-भीतर २२६ - हुआ आशीर्वाद-सा है, ससार को सुखी बनाने के लिए वही काफी है। भैया तो जैसे भाभी मे घुल गए है। मै जब उन्हे याद करता हू, उन्हे प्रणाम करता हूं। ऊषा कैसा प्यारा नाम है। जब से मैंने ऊषा से ब्याह किया है, हमेशा ऊपा- काल में जाग उठता हू । मै एकटक देखता रहता हू । कितनी प्यारी सुनहरी किरणो को धरती पर बिखेरती है ! पूर्व के आसमान पर पीली लगती है। वह ऊपा- पीली, शात, उजला आलोक । वह कैसी प्यारी लगती है, किस तरह आनन्द देती . ? ऐसे ही मेरी ऊषा भी मेरे जीवन के अधेरे को छूते ही उज्ज्वल आलोक करेगी। उसके पिता रायबहादुर है, सेशन जज है, प्रतिष्ठित नागरिक है। वह फार्वर्ड घराने की शिक्षिता कन्या है । ऐसे उच्च घराने की शिक्षिता कन्याएं क्या मैंने देखी नहीं ? मेरी ही क्लास मे लगभग आधी दर्जन ऐसी कुमारिया पढ़ती है। जब वे क्लास मे आकर बैठती है, क्लास जैसे जगमगा उठती है, देखकर प्राण हरे हो जाते हे, ससार सुन्दर हो जाता है। उन शिक्षा-सगिनियों का वह क्षणभर का सग मेरो नस-नस को जवान बना देता है । लीला की गहरी आसमानी साडी, चन्द्रमा-सा मुख और हथिनी के समान मस्तानी चाल ! प्रोफेसर भी देखते ही रह जाते हैं। नलिनी जब आती है, आधी की तरह; उसके मोती-से दात और उभारदार सीना। देखकर कलेजे मे हिलोरे उठने लगती हैं। लीला की चश्मेदार आखो से जो हंसी बिखरती है, उसपर क्लास-भर के लडके लोट-पोट हो जाते है। कहा तक कहू लेकिन मै तो तीन साल तक यही सोचता रहा कि मेरी ऊपा इन सबसे बढ़-चढकर होगी। जब-जब मेरा मन इन स्वदेशी मिसों की और मचला, जो बीसवी सदी में लापरवाही से सड़कों पर अपना रूप छितराती फिरती है, तो मैने समझा-बुभा- कर काबू मे ही रखा। तीन साल इसी तरह मैने पूरे किए। भीतर ही भीतर मै ऊषा को अपने बिल्कुल नज़दीक खीच लाया। मैंने उसे देखा नहीं, समझा भी नहीं । पर इससे क्या? वह मेरी दुलहिन है। मै इस बात को नहीं मानता कि जिन स्त्री- पुरुषो मे प्रेम हो वे ही ब्याह करे। मैं तो इस उसूल का कायल हू कि जिनसे व्याह हो जाए, वे स्त्री-पुरुष आपस मे प्यार करे। इसलिए ऊपा को न पाकर भी मेरे प्यार का पौधा तो बढता ही गया। अब मै एम० ए० पास कर चुका । मेरी पढाई पूरी हो चुकी। ऊपा भी घर आ गई। भाभी ने मुझे दौड आने को लिखा था, सो मै तूफान-मेल से दौड़ा हुआ