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२१४ कन्यादान थी, जैसे तख्ते में कीले ठोकी जाती हो । स्वर निकलता था, मानो हाय-तोबा मच रही है। गाना क्या था, चीखना-चिल्लाना था। युवक चुपचाप सुनता रहा। समाप्ति पर उसने जरा मुस्कराकर ठेकेदार साहब से उसकी भूरि-भूरि प्रशसा की। ठेकेदार साहब फूलकर कुप्पा हो रहे थे। कन्या की स्वर-लहरी मे वे डूब-से गए थे। गद्गद कण्ठ से बोले--देखो भाई देशराज, अब देर का काम नही, तुम्हें हा या ना करना होगा। "पर मैने अर्ज की कि बिना उधर से कोई जवाब आए कुछ कहा नही जा नकता।" "तुम कहते हो, उसका पिता अफ्रीका में है ?" "जी हां।" "और उसने लिखा है कि अगले साल आकर तब कुछ निर्णय करेगा?" "जी हा।" "यदि उसका निर्णय बदल गया?" "हो सकता है, मगर'लड़की ने वचन दिया है।" "लड़की ने?" हा 1" "तुम कहते हो, वह जालधर में है ?" "जी हा।" "तुम वहा जाकर एक बार पक्का जवाब ले जाओ।न मिले, तो कह दो, मै शादी करता हू । अफ्रीका को भी तार दे दो। तुम द्विविधा में क्यों रहते हो?" बहुत इधर-उधर करने पर युवक राजी हो गया। ठेकेदार साहब ने खड़े होकर घड़ी निकालकर कहा- मुझे एक मीटिंग में जाना है--दो घण्टे में आ जाऊगा, तब तक खाना भी बन जाएगा, खाकर जाना। काता से बाते करो- सत्यार्थप्रकाश इसने पढ लिया है, तुम इसकी परीक्षा लो।कांता, जरा उठा तो ला सत्यार्थप्रकाश। युवक ने एक बार जाने की इच्छा प्रकट की, पर ठेकेदार साहब ने न माना। वे चले गए। चलते-चलते काता से कह गए, डाक्टर साहब को नाश्ता-वाश्ता करा देना।