कन्यादान २१३ "जी हां, मैं इस विषय पर विचार कर रहा हूं।" "विचार क्या, जब मैं यहां हूं, तब चिता क्या ? तुम कोई गैर थोड़े ही हो। तुम्हारे पिता डेरा गाजीखां के प्रधान थे। हमारी-उनकी दांत-काटी रोटी थी।" "बेशक।" "तो मैं चाहता हूं कि तुम्हे स्वीकृत हो, तो यह रिश्ता हो जाए। लड़की तुम्हारे हर तरह योग्य है।" "जी, मैं इसपर जरा विचार लूं।" "विचारना क्या है ?" "फिर भी।" "वह कुछ नही । अच्छा क्या विचारना चाहते हो, जरा मुझे भी तो बताओ।" "वास्तव मे मेरी विवाह-चर्चा अन्यत्र चल रही है, और पिता जी ही उस सम्बन्ध का वाग्दान कर गए थे। जब तक उस मामले मे कुछ हेस-नेस न हो जाए, मैं कुछ नहीं कह सकता।" "शोक की बात है कि तुम आर्य होकर भी पिता के अधीन हो। भाई, विवाह तो स्वयं विचारने के है । वेद मे क्या लिखा है, जानते हो? 'युवान विन्दते पतिम्,' समझे ? विवाह अब गुड्डे-गुड़ियो के खेल पोपो के हाथ मे तो नहीं हो सकते न!" "आपकी बात ठीक है, परन्तु "अब परन्तु क्या' अच्छा, तुम भीतर चलो, जरा काता से वात तो करो। वह तुम्हारे खयालात पलट देगी।" ठेकेदार साहब उठे। युवक भी सकुचित होकर भीतर चले। ठेकेदार साहब ने कहा-बेटी, ये डाक्टर देशराज' आए हैं । आओ, तुम्हारा परिचय कराऊ । जरा अपनी भजनों की पुस्तक लेती आना। हां, वह भजन हारमोनियम पर सुनाना, जो वार्षिकोत्सव पर माया था । तुमने सुना था देशराज? "जी नही।" "जरा सुनाना कांता ! हारमोनियम उठा लो।" कांता ने निकट आकर युवक को नमस्ते किया। फिर उसने पिता की तरफ देखकर कहा--कौन-सा भजन बाबूजी? "वही |--धरम पर तन-मन-धन कुर्बान काता गाने लगी। उसकी अंगुलिया हारमोनियम के पर्दे पर इस भांति पड़ती "
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