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पुरुषत्व २०७ सिर नीचा किए पडी थी। रामेश्वर ने अतिशय करुण स्वर मे हीरा के सिर पर प्यार से हाथ रखकर किचित् आकाश की ओर मुख उठाकर कहा-अभागिनी नारी | इस शरीर का समर्पण तुम कमीने धन के बदले मे चाहे भी जिस व्यक्ति को कैसे कर सकती हो ? हाय ! जैसे विष-पुष्प के सूघते ही मृत्यु आती है, वैसे ही विष-पुष्प तुम हो! पुरुष जो महान् पौरुष के बल पर मनुष्य समाज के प्रारब्धका निर्माता है, कैसे निकृष्ट होकर वेश्या का दास बन जाता है ! तुम वेश्या" हीरा ने नेत्रो से स्वच्छ मोती के समान दो आंसू टपकाकर ऊचा सिर उठाकर कहा: "आप मुझे वेश्या न कहे।" रामेश्वर अटककर बोले-तब क्या कहे ? "मैं स्त्री ह।" रामेश्वर की आखो में आसू भर आए और टपक गए। वे चुपचाप कुछ देर तक हीरा के सिर पर हाथ धरे बैठे रहे। फिर बोले-मैने तुम्हे देखते ही समझ लिया था कि तुम स्त्री-रत्न हो, पर तुम्हारी चाहना उस वस्तु की न थी, जो किसी स्त्री की होना चाहिए। वेश्या होना स्त्रीत्व से पतित होना है। वेश्या बनकर कोई स्त्री तो रह ही नहीं सकती। मैंने यह सोचकर कि वेश्या-वृति कभी तो मरेगी और नारीत्व उदय होगा, इस देव-तुल्य शरीर को वेश्या के लिए जो मूल्य देना था देकर ले आया। मैंने निश्चय किया था, वेश्या-पुत्री हो तो क्या, वैश्या कभी न बनने दूगा। पर क्या सचमुच तुम स्त्री बनना चाहती हो? "अवश्य, परन्तु "परन्तु क्या ?" हीरा ने बड़ी-बड़ी आखे उठाकर देखा, फिर नीचे देखने लगी। रामेश्वर बोले-बोलो, बोलो!-हीरा ने अपरिमित अनुनय नेत्रो में भर- कर कहा-मालिक मेरे ! क्या स्त्री बनकर मुझे पुरुष प्राप्त होगा? रामेश्वर घबराए। हीरा ने रामेश्वर का पल्ला पकड लिया। उमने कहा- मैं पुरुष के लिए ही स्त्री बनती है। रामेश्वर तन न सके। उन्होने कहा-प्रिये ! स्त्री ही के लिए.पुरुष है।