पुरुषत्व २०५ "आप इन्हे विदा करे।" "किन्तु "विदा कर दें।" रामेश्वर ने डाक्टरो को विदा कर दिया। रामेश्वर ने पूछा-शायद आपकी तबीयत अब अच्छी है, जरा आराम करने से ठोक हो जाएगी। हीरा बोली-नही ! वह आख भी न मिला सकी। उसके जरा होठ फड़क- कर रह गए। रामेश्वर चलने को उद्यत हुए। हीरा ने उद्विग्न होकर कहा-ठहरिए ! रामेश्वर बैठ गए। वह उठ बैठी, फिर खडी हो गई। रामेश्वर एकटक उसके मुख को ताकते रहे । हीरा आगे बढी। रामेश्वर उठकर पीछे हटने लगे। हीरा मानो होश मे न थी। वह सोच रही थी-क्या पुरुष स्त्री को सम्पदा और ऐश्वर्य देकर पुरुषत्व से उऋण हो सकता है ? स्त्री को पुरुष से जो कुछ चाहिए, उसके लिए भी क्या कोई पुरुष नारी को इतना तरसा सकता है ? हीरा का कण्ठ अवरुद्ध था । वह टूटते शब्दो मे, अश्रु-धारा मे डूबती हुई बोली -आप'आप क्या थोड़ा विष मुझे नहीं दे सकते ?- रामेश्वर ने करुणा,स्नेह और उदारता से कहा--आप यह क्या कह रही हैं ? आपके प्राणों के लिए मेरे प्राण, और आपके जीवन के लिए मेरा जीवन अभी हाज़िर है। "वही तो, वही तो, वही तो मुझे दो। ये समस्त ठाठ, कोठी, बगले, अटारी, महलसबमें आग लगा दो। इस अधम शरीर के लिए आपने इतना किया; पर ये प्राण सूखे जाते है। जीवन मरा जाता है; वही मुझे दो : अपने प्राण और अपना जीवन । मैं उसीकी प्यासी हू , इतना क्यो तरसाते हो?" निर्दयी, निष्ठुर--हीरा ने आवेश मे ये शब्द कहे । वह रामेश्वर पर झुक पड़ी, जोर से उसकी कमीज़ फाड़ डाली ! फिर अचेत होकर धरती पर गिर गई। रामेश्वर धैर्यच्युत न हुए। उन्होने धीरे से हीरा को उठाकर कौच पर लिटा दिया। होश मे आने पर हीरा झपटकर रामेश्वर से लिपटने को दौडी। रामेश्वर ने जरा हटकर मधुर स्वर मे कहा--कृपा कर सावधान होइए आपको क्या कष्ट है ? हीरा खिसककर रामेश्वर के पैरो मे आ पड़ी। वह रो रही थी। अनन्त रुदन -- ॥
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