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१६० द्वितीया क्या? सोचे तो क्या ? कहे तो क्या? और करे तो क्या ? उसके प्रकृत हास्य और विनोद मे व्याघात पडने लगा। उसकी प्रत्येक चेष्टा की चन्द्रनाथ आलोचना करते, रहन-सहन में ऐब निकालते। इस तरह इस बात को मत बोलो, इतने ज़ोर से मत हसो, इस तरह खड़ा होना सभ्यता नहीं, यह वस्त्र इस तरह नहीं पहना करते, अरे ! तुमने इस तरह पांव फैलाकर बैठने की आदत नही छोडी ? इन बातों से आनन्दी का खाना-पीना, सोना-जागना, यहा तक कि सास लेना भी हराम हो गया। उसके हृदय में पति के प्रति प्रेम का पूर्ण स्फोट नहीं हुआ था। उसके हृदय की कली अविकसित थी। इसीपर उसपर दिन पर दिन कठोर होते हुए उसके पति के शासन ने उसे भयभीत और शंकित कर दिया। चन्द्रनाथ के अन्तस्तल को सम- झने की शक्ति उस अबोध में कहा थी ! जिस आयु में जीवन आंखों में होता है, उस आयु मे प्रौढ वासना का तत्त्व कैसे समझा जाए ? आनन्दी थकित, चिन्तित और पीड़ित-सी पति की बातो को यथासाध्य मानने का ध्यान करती, चेष्टा करती, परन्तु उससे सदैव भूलें होती। वह पति को क्रुद्ध देखकर जरा भयभीत होती, पर उन्हे हसता देखकर निश्शक देखने लगती। धीरे-धीरे उसे इस जीवन का भी अभ्यास हो गया। उसे ऐसा भास हुआ, ये तो इसी तरह क्षण में हंसते, क्षण में क्रुद्ध होते हैं, इसका ज्यादा विचार न करना चाहिए। चन्द्रनाथ जब कड़े शासक बने थे, तब यदि शासक ही बने रहते तो वे अपने उद्देश्य मे सफल होते । परन्तु वे भावुक भी तो थे। पत्नी को प्यार भी करते थे, अपार दया भी उनकी उसपर थी। वे जानते थे कि इस उल्लसित कुसुम-कलिका को समवयस्क पति के साथ पूर्ण विकसित होने देने का स्वाभाविक अधिकार मैंने छीनकर, इसपर अन्याय भी किया है। पर किया क्या जाए ! उसे अति शीघ्र अपने पत्नी-पद के योग्य बनाने की बड़ी आवश्यकता भी थी। विवश हो वे उसे शासन में रखने के लिए केवल आवश्यक कड़ाई करते, परन्तु फिर यथासम्भव प्रेम और क्षमा का भाव भी रखते। इसीका गलत अर्थ आनन्दी ने लगाया था। और वह अब अपने पति के क्रोध की उपेक्षा करने लगी थी। उसकी आयु का मद, और धीरे-धीरे प्राचीन बनना उसका सहायक था।