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द्वितीया माता चुपचाप भीतर चली गई। बालिका ने सुना। वह थर-थर कांपने लगी। उसने कहा-अम्मा जी ! तुम चलोगी? "न बेटी । तुम सैर-सपाटे में रहोगे, मेरे पैरो मे इतना दम कहा? फिर मेरी तबियत भी ठीक नही । तुम मेरे नाम के दो गोते गगाजी मे जरूर लगा आना।" वधू ने माता के पैरो मे गिरकर रोते-रोते कहा-अम्मा ! उनके साथ अकेले मुझे कही मत भेज देना ! "बेटी ! उनसे तुझे भय क्या है ? वे ही तेरे रक्षक, तेरे स्वामी, तेरे सब कुछ है । अब तू उन्हे पहचान; उन्हे सुखी कर और सुखी हो ! इससे मेरी आत्मा भी तृप्त होगी।" बालिका कुछ भी न समझकर बोली नही, मैं न जाऊगी। चन्द्रनाथ ने सुनकर अपने असाध्य अधिकार का प्रयोग किया। उनकी आज्ञा की अवहेलना करने का घर-भर मे किसीका साहस नही, अधिकार भी नहीं था। घर के आबाल-वृद्ध सभीसे एक यही बात सुनकर बालिका को जाना पड़ा, जिस तरह पिता के घर से यहा आना पड़ा था। वह सोचने लगी : ओह ! स्त्री-जाति का भाग्य भी कैसा है ! वह अतिशय भयभीत, अतिशय निरानन्द और अति क्रुद्ध- भाव से पति के पीछे-पीछे चली। पुण्य-सलिला जाह्नवी का सौदर्य हरिद्वार मे अद्वितीय है। वैसा मीठा, शीतल, स्वच्छ और पाचक जल गगा मे फिर नीचे कही देखने को नहीं मिलता। चन्द्रनाथ के लिए हरिद्वार नया नही, परन्तु बालिका आनन्दी के लिए तो सब कुछ नया था। सेकेण्ड क्लास की गद्दी-मण्डित सीट, बिजली का झर-झर चलता हुआ पखा, स्वच्छ पाखाना, चमचमाता डिब्बा, यह सब देखकर अबोध आनन्दी क्षणभर को अपना भय भूलकर देखती रह गई, पर जब गाड़ी चल दी और डिब्बे मे मुसाफिरों की भीड़ न घुसी तो वह घबराई । चन्द्रनाथ जैसे दीर्घकाय और अपरिचित पुरुष के साथ एकाकी रहना ही तो उसका सबसे बड़ा भय था, क्योकि वह जानती थी, इस व्यक्ति को मेरे शरीर पर असाध्य अधिकार प्राप्त है और यह उस सुयोग की प्राप्ति के लिए ही मुझे अकेली ले आए हैं। ननद ने रहस्य मे यह बात उसे चलते-चलते कह भी दी थी।