१८४ द्वितीया खाती और रात को उसीकी खटिया पर सो रहती। इस विषय मे उसने अपने हठ के आगे घर भर की महिलाओं को परास्त कर दिया था। चन्द्रनाथ पूर्वपत्नी की मृत्यु के बाद बाहर की मर्दानी बैठक में अकेले सोते थे। रात्रि में अन्त'पुर मे आने का वे दिन की भाति साहस न कर सकते थे। उनका प्रबल विवेक फिर भी जागरित तो था ही, पर वे अतिशय व्याकुल, अनिद्र और सन्ताप से रात काटते थे । इस विवाह से पूर्व कभी उनकी ऐसी दुरवस्था नही हुई थी। वे सोचते थे, पन्द्रह वर्ष पूर्व जब मेरा प्रथम विवाह हुआ था, तब वह अवसर पाते ही कैसी चितवन से घूघट के बारीक आवरण मे मुझे देखा करती थी। वह हीरे के समान सतेज दृष्टि और दुर्दम्य आनन्द से उत्फुल्ल होठ आज भी मेरे मनो- मन्दिर मे वैसे ही ताजे रहते है । यह तो उस तरह नही देखती, सदैव छिपती है, जैसे हरिणी शिकारी से भय खाती है ! क्या इसके हृदय मे मेरे लिए प्रेम नही ? यह मुख उसकी अपेक्षा कितना सुन्दर है ? वह मुख चौदह वर्ष के काल मे, सर्दी- गर्मी, दुःख-सुख, क्रोध-विराग प्राप्त करके कितना फीका, कितना साधारण बन गया था। उसकी अपेक्षा यह कितना नवीन, सुन्दर, मधुर, अमूल्य है ! ओह ! इसकी कभी सभावना नही थी। परन्तु विचारधारा और हृदय कहा दौड़ा जा रहा है । ओह ओह ! वहां अति दूर ! अरे । यह तारुण्य, यह सौन्दर्य, यह तप्त स्वर्ण- कान्ति, अरे इसमे डूब । अभागे हृदय ! किस अधेड़ को यह सौभाग्य प्राप्त होता है ? सौभाग्य ! चन्द्रनाथ तड़प उठे। सौभाग्य शब्द ठठाकर मानो प्रेत की तरह हंस पड़ा। वह निर्जीव, निस्पृह, निश्चेष्ट मुख अर्थहीन नेत्रों कोखोलकर उन्हें देखने लगा। चन्द्रनाथ विकल होकर रोने लगे। रोते-रोते ही वे सो गए। - . प्रातःकाल होते ही उन्होने हठात् हरिद्वार जाने का प्रस्ताव माता से कहा । वे कुछ कह भी न पाई थी कि उन्होंने कहा-झटपट उसके साधारण कपड़े ट्रंक मे रख दो, गाड़ी मे देर नहीं है। माता अवाक रह गईं। वे पुत्र के और भी निकट आकर बोली । अकेली बहू को कैसे ले जाओगे, वह कैसे बोलेगी? चन्द्रनाथ ने क्रुद्ध स्वर मे कहा-क्या वह गूंगी है ! क्रोध के प्रवाह को छितराकर माता ने कहा-बेटे ! पराई बेटी है, नई आई है, बच्ची है, सीधी-सादी । एक दिन में तो सब बातें होती नहीं ? चन्द्रनाथ ने कहा-तुम भी चलो।
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